स्मृति के गलियारे कैसे हैं पंख पसारे,
झांकती जब झरोखों से दिल थे हारे।
कुछ खिलता-महकता अहसास पाती,
पलकों में सजे ख्वाब धुंधसी छा जाती।
फिसलते वक्त की यादें अभी ताजी हैं,
विगत के पन्नों को संजोने को राजी हैं।
भूल-भुलैया में अमृत,क्या गरल पिया?
जिसने जाना स्व को,जग है जीत लिया।
अल्फाज भी चुक गये,रंग ही बदल गये,
तन्हा हो फिर से एक-दूजे के संग रह गये।
जिन्दगी बहुत कुछ कटु-मधु सिखा गयी,
अनुभव देके सरगम,साज की बता गयी।
जीना आ गया,गरल पीना सहज हो गया,
जीवन-सार ले विदा बेला,अमृत पा गया।
स्वरचित डा.विजय लक्ष्मी