धूल में लिपटा आँगन, खून से सनी दीवार,
बहराइच के गलियों में गूंजी करुण पुकार।
जहां कभी बच्चे हंसते,आज छाया सन्नाटा,
धरती माँ है रोती , ये कैसा कहर है काटा।
बंदूक की आवाज़ें, इंसानियत को चीरती,
प्यार और भाईचारे की नींव अब कांपती।
हर आँसू में है सवाल, हर चीख में है दर्द ,
कैसे बहराइची फिजा में सिर्फ़ ज़हरजर्द?
क्या यही वे देश, जहां गंगा-यमुना बहती,
जहां हर धर्म की फूलों सी महक गमकती।
अब तो दिलों में आग,नफरती बाढ़ सी है,
आँखों में अब ख्वाब नहीं,बस ख़ौफ सी है।
चलो,मिलकर फिर उम्मीदी दिया जलाएं,
अश्रुधारा से नफरत के कट्टर दाग मिटाएं।
बहराइच की गलियों में फिर से अमनराज,
आओ सब मिलकर गढ़ें एक नया समाज।
हाथों में हाथ हो, दिलों में फिर से हो प्यार,
बहराइच के गगन में शांति का हो इज़हार।
शांति का हो इजहार देश में रामराज आए,
कोई भी हमें वोट की चाह में बांट न पाये।
स्वरचित डॉ विजय लक्ष्मी