चली आ रही है सदियों से अस्तित्व की लड़ाई।
कभी मारा-पीटा तो कभी अपने हाथों से जलाई।
कभी देवी बना कर पूजा तो कभी डायन बनाई ।
निज स्वार्थ में हर बार नारी ही शूली पर चढाई ।
मेरा अस्तित्व मेरे स्वाभिमान की असली पहचान ।
कमतर आंकने की भूल न करना निहित
आत्मसम्मान।
लें आज संकल्प ईश्वरप्रदत्त जिम्मेदारी निभाने की ।
संयमित जीवन व्रत ले हर लक्ष्य को फिर पाने की ।
हिम्मत नहीं होगी यों किसी की उंगली उठाने की ।
जरूरत है बस अपने आत्मविश्वास बल जगाने की ।
मैं धुरी निर्मात्री सोपान सृजित मंजिल हर नर-नारी की।
संभले नहीं तो बारी होगी दुर्गा काली के अवतारी की।
स्वरचित डा.विजय लक्ष्मी