क्या तुम्हें पता है, मैं जब महज पांच 6 वर्ष की रही होगी, तब कई बार मैं घंटों पलंग के नीचे छिपी रहती, तो कभी चादर से अपने आप को ढक कर रखती, कभी मेहमानों को देखकर स्नानघर में छुप जाना, या नींद के बहाने आकर शयनकक्ष में बैठ जाना,
अब यह सब मेरी प्रवृत्ति बनते जा रही थी, ऐसा लगता था जैसे मैं खुद को ही दुनिया से अदृश्य कर देना चाहती थी, थोड़ी बड़ी होने पर और लगभग 11-12 वर्ष की उम्र में, मैं अपने पूरे घर को अदृश्य कर देना चाहती थी।
वह मेरा सुंदर फूलों सा पेड़, छोटी सी बगिया और मेरे पैदा होने पर मेरे माता-पिता के आंसू के रूप में बहता पश्चाताप सब कुछ लेकर मैं उस घर को ही अदृश्य कर देना चाहती थी, क्या तुम्हें पता है कि समाज के सभ्य लोग जो बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, कहीं ना कहीं एक लड़की के यौवन को क्या देखकर आंकते नहीं,
जानते तो तुम भी हो, लेकिन कहने में बुरा लगता है, मैंने जब 15-16 साल की उम्र में जवानी की दहलीज पर कदम रखा, तब मैं हर उन हाथों को गायब कर देना चाहती थी, जो मुझे मेरे स्कूल ड्रेस के बहाने मेरे शरीर का नाप ले रहे थे, और मैं उस सुरसुराहट को जो रंगीन मेले की भीड़ में मेरी सुंदरता को देख उभरती थी, और जिन्हें सुन मेरे कानों में अत्यंत छोभ पैदा करती थी, जिसे सुन मैं अपने उस देह को ही अदृश्य या नष्ट कर देना चाहती थी।
आखिर क्यों????? क्या तुम नहीं जानती?? जानती तो तुम भी हो,और समझती भी हो, क्या कभी तुम्हें प्यार या दुलार के बहाने अपनी गोद में बैठाकर नहीं छेड़ा था????
बताओ तब तुमने क्या किया??? कुछ नहीं ना?????और करती भी कैसे....समाज के लिए वह एक प्रेम भाव था, लेकिन वास्तव में उसकी गोद में बैठ कुछ ही समय में उसकी बुरी नियत का अंदेशा तुम्हें भी हो गया होगा, चाहे फिर वह समाज का कोई भी पक्ष या रिश्ता ही क्यों ना रहा हो।
सबने, यहां तक कि खुद के मां बाप ने एक लड़की के बड़े होने की निशानी के रूप में उसके शरीर की परिपक्वता और उभार पृष्ठ को देख कर ही तो आंका है।
आखिर क्यों????? क्या एक लड़की को संपूर्ण विकास का भी अधिकार नहीं है???? क्या वह समय से पहले परिपक्व भी होने का अधिकार नहीं रखती???? क्या उसका शारीरिक विकास ही बाधा बन जाएगा????आखिर क्यों उसे खुलकर हंसने का अधिकार नहीं?????
क्यों उसे अपनी हंसी को भी दबा कर रखनी पड़ती है???आखिर क्यों दर्द में होने के पश्चात कभी वो खुलकर आंसू बहा अपने दर्द को बयां नहीं कर सकती???? वह भी उसे अकेले में और कभी तकिया का सहारा ले छुपाना होता।
क्या उसके प्राण, प्राण नहीं??????
क्या वह उन जीवों से भिन्न है, जिन्हें समाज बराबरी का दर्जा देने बातें करता है, आखिर क्यों?????
क्या दोष हैं हमारा ?????
क्या यही है कि हमने सृष्टि रचना का मूल आधार बनना ईश्वर से स्वीकार किया, किसी बीज की तरह खुद को गला कर एक नई सृष्टि का निर्माण करने का अधिकार प्राप्त किया?????
क्या भला इस संसार में बिना गर्भ का सहारा लिए किसी का जन्म ले पाना संभव है???? नहीं ना?????
फिर क्यों इतनी दयनीय अवस्था तुम खुद ही बताओ????
बस बहुत हुआ, मैंने सब कुछ भूल कर तब पर भी समाज के नियमों को स्वीकार किया, माता-पिता की विवशता देख कर और इस देह की रचना करने वाले उन ईश्वर की इच्छा पूर्ति और उनका मुझ पर अधिकार का सम्मान करते हुए मैंने अपने आप को किसी वस्तु की तरह दान के रुप में देना स्वीकार किया,
आख़िर तुम ही बताओ??? क्या वाकई दान शब्द उचित होता है, क्यों????? एक पल में बिना हमारी भावनाओ, इच्छाओं और पूर्ण स्वीकृति को जाने हमें किसी वस्तु की तरह दान के रुप में इस अनजान शख्स को सौंप दिया जाता हैं, जैसे हमारा कोई अस्तित्व ही ना हो, और समाज का अगर मैं शत-प्रतिशत कहुं, तो कम ना होगा।
वह हिस्सा इस पर भी किसी वस्तु की तरह ही हमें स्वीकार करता है, और अपना स्वामित्व हम पर इस तरह समझता है, जैसे उसने खुद ही हमारी रचना की हो, क्यों वह हमारे महत्व को स्वीकार नहीं कर पाते, जबकि हम ताउम्र अपनी जिंदगी को स्वीकार कर चुके होते हैं,
सच कहो, खुले मन से कहना....अहिल्या, रुकमणी या जिस किसी भी बड़ी से बड़ी महान स्त्रियों की बात करे तो, सबने कहीं ना कहीं दर्द सहा है, कभी अपने पति को दूसरे के प्रेम में देखा, अपने आप को छला हुआ सा अनुभव करना, तो कहीं खुद के चले जाने पर अपने समर्पण भाव की सजा पत्थर बन कर पाना।
आखिर क्यों???? बस अब बहुत हुआ इसलिए मैं अब और सजा स्त्री होने की नहीं उठाना चाहती, एक दफा तो मैंने भी स्वीकार कर लिया था, अपनी सोच को मिटा एक लड़की के जीवन के दूसरे चरण को स्वीकार करना, जहां मैं पूर्ण सहमत नहीं थी, लेकिन फिर भी मैंने विवाह का प्रस्ताव स्वीकार किया और विनय को अपना नया स्वामी स्वीकार कर पिंजरा बदलने की तरह अपने ससुराल आ गई।
बहुत कुछ हद तक विनय से मिलने के बाद जैसे मेरी सोच बदलने लगी थी, हां, मैंने अपने आप को गलत भी ठहराना शुरू कर दिया था, इतना प्यार और सम्मान पाकर कोई भी शायद ऐसा ही करता जो मैंने किया, लेकिन समाज भला अपने नियमों को बदलते हुए कैसे देख सकता है???
उसे यह स्वीकार कहां की कोई स्त्री खुश रहे, क्योंकि शायद ऐसा होने से उसे अपना अहम शांत करने की क्षमता खो देने का भय था, इसलिए लोगों ने विनय को भड़काना शुरू किया , और धीरे-धीरे वह भी काफिर अपनी सोच बदल अपने लोगों की तरह हो गया।
अब उसके लिए मैं सिर्फ एक जरूरत का सामान हो गई थी, जो कभी शारीरिक सुख के लिए, तो कभी सामाजिक कार्यों के लिए पेश किए जाने के काम में आने वाली थी, इतनी जल्द मैं फिर अपनी पुरानी सोच में आ जाने को मजबूर थी, यहां तक तो ठीक था, लेकिन जब उसने एक दिन मेरे अस्तित्व को ललकारते हुए यह कह दिया कि आखिर तुम हो क्या????
और मैंने दिल से इस सवाल का जवाब ढूंढा तो, वाकई अपने आप को शून्य में पाकर मैं हतप्रभ रह गई, यह सच था कि मेरा अस्तित्व सबसे बड़ा होकर भी शून्य के बराबर था।
कायरा मुझे माफ करो, अब और जीने की चाह शेष न बची, फिर भी तुम्हारे कहने पर मैं और एक सप्ताह का समय अपने आप को देती हूं, मेरे इस निर्णय का मूल कारण शायद इस दौरान तुम खुद ढूंढ लो, तब आकर मुझसे कहना कि मैं कहां तक गलत हूं, और क्या वाकई मेरा आगे का जीना सार्थक होगा, यदि हां, तब मैं अवश्य तुम्हारी बात मान लूंगी, कहते हुए स्मृति ने वापस अपने घर की ओर रुख मोड़ लिया,
लेकिन कायरा को दिए एक सप्ताह की चुनौती अत्यंत ही कठिन थी, क्योंकि अब तक उसके सामने रखी गई एक एक बात उसे खुद कहीं ना कहीं प्रवाहित कर गई।
शेष अगले भाग में......