बाजरे की रोटी और मेथी की भाजी खाई है तूने कभी????
चल आ बैठ दोनों मिलकर खाते हैं, आज मां ने सुबह-सुबह मेरे लिए बनाई, मैंने एक-दो रोटी पहले ही खा ली, इसलिए अब भूख नहीं है, चलो जल्दी खाते हैं, फिर बहुत काम है, सुना है कुछ मेहमान आने वाले हैं, इसलिए आज थोड़े कपड़े ज्यादा है, जल्दी धूल कर वापस लौट, साफ-सफाई भी करना है।
और हां मैं तो बताना ही भूल गई तुझे भी बुलाया है परसों मेरी मां ने.....और अगर मन हो तो बाबा को भी लेकर आ जाना या बोल तो मैं लेने आ जाऊं,
उसकी मासूमियत और बात करने का अंदाज बिल्कुल उसके चेहरे से मिलता-जुलता, एक भाव से कही गई बातें उसकी बातें मेरा मन लुभा लेती थी।
मैं उसे सिर्फ देखती रहती, कोई जवाब ना दे पाती, उसने फिर पलटकर कहा, अरे मैं पूछ रही हूं, आएगी कि नहीं???? मैं तो वैसे भी मना कर पाती नहीं, मैंने कहा हा..... हा...... तभी तुरंत उसने उलट कर जवाब दिया,
हां तो चल बैठ कुछ खा ले पहले, और मेरे सामने उसने रोटी और भाजी रख दी।
पहला निवाला लेते ही मैं समझ गई कि आज खाना किसने बनाया होगा, लेकिन कुछ ना कह पाई, और वह भी मेरी नजरों को देखकर यह भाप गई कि मैं जान चुकी हूं, लेकिन दोनों की बातें सिर्फ नजरों में ही ठहर कर रह गई, और मैंने ही खुद सवाल बदल कर उससे पूछा और सुना क्या हाल है नए मेहमान का???? जिस पर वह चौंक कर बोली नया मेहमान??????? कौन मेहमान?????? नहीं पगली मां है वह मेरी.....
और मां तो मां होती है, अब चाहे जो भी हो भला, तुम ही बताओ, कहती तो मैं क्या कहती????? मां ही कहती ना........
मैंने जवाब दिया, लेकिन सौतेली मां...... नहीं सौतेली मां नहीं ,केवल मां ही कह लो , क्योंकि जब पिता मान चुके तो फिर हमारे मानने या ना मानने से क्या होता है, और फिर हम होते ही कौन है???? हमारा भला क्या अस्तित्व???
बचपन में मां का आंगन ,थोड़े बड़े होने पर पिता का घर, और विदाई के बाद पति का घर, बड़े होने पर हमारा अस्तित्व ही कहां है, सब कुछ हमारे दम पर होते हुए भी हमारा कुछ नहीं होता, और सच कहे तो हमारे होने या ना होने से कोई फर्क ही नहीं पड़ता, अब बताओ मां के जाने से पिता को क्या फर्क पड़ा,
दामिनी देवी ने आकर उनकी कमी पूरी कर दी और फिर मेरा क्या था, मां को तो सौतेला नहीं कहा गया, लेकिन समाज ने मुझे बेटी से सौतेली बेटी का दर्जा दे दिया, अब हर कोई दया भाव दिखा सकता है, लेकिन कर कुछ नहीं सकता, जैसे सौतेली बेटी का भाग्य ऐसे ही लिखा होगा।
वाह रे समाज कहते हुए उसकी आंखें नम हो गई, इतनी परिपक्वता से कही गई बातें और उसके भाव मिश्रित रूप से आंसू की चंद बूंदों के साथ उसके गोरे गालों से लुढ़क कर नीचे की और आने लगी, जिसे उसने बड़ी चतुराई से अपने आंचल से पहुंच अपनी बहादुरी का परिचय दिया और कहने लगी, अब तू ही बता और क्या जानना???? भला तुझसे क्या छुपाऊ, कह कर मेरी और किसी अबोध बालक की तरह देखने लगी, और लेकिन मैं इतनी मजबूत ना थी कि उसके सवालों का जवाब दे पाती और ना ही कोई उत्तर था मेरे पास, इसलिए मैं नजर ना मिला पाई उससे,
और मैंने चुपचाप उसके कपड़ों की गठरी लेकर नदी में फेंक दी, अच्छा चल छोड़ बेकार की बातों में समय ना गवा, सूर्य सिर पर आने को हुआ, जल्दी कर कपड़े सुखाने भी तो है कहकर मैंने वातावरण की दिशा का रुख बदलना चाहा और वह भी हमेशा की तरह.... मेरा साथ दे काम में जुट गई, हम दोनों ने अपना पूरा गुस्सा उन कपड़ों पर उतारा, नतीजतन कपड़ों में और भी चमक आ गई।
हाय रे हमारी किस्मत हमारे क्रोध में भी जैसे दूसरों का ही भला लिखा था, यह देख हम दोनों ने एक दूसरे की ओर देख हंसने लगे, और फिर कपड़ा सूखने के इंतजार में एक दूसरे से बातचित करने लगे,
इधर कपड़ों की धुलाई देख दामिनी देवी के मन में लालच आया और ना जाने उनके दिमाग में क्या पकने लगा, और वह अपना सारा प्यार अपनी सौतेली बेटी पर दिखाने की कोशिश करने लगी, और मेरी नादान सखी किसी बच्चे की तरह उनका अनुसरण करती उनका साथ देने लगी, घर की साफ-सफाई, रंग रोगन जैसे किसी त्यौहार का वातावरण निर्मित कर रहे थे,
मेरी सखी को तरह-तरह की सीख पिता और मां दोनों की तरफ से किसी विधायक के तौर पर दी गई, और उसे जबरदस्ती नए कपड़ों से लाद दिया गया और किसी गुड़िया की तरह से सजाया गया जिसे वह सिर्फ मां का प्यार समझ रही थी, लेकिन जब मैंने उसके घर में प्रवेश किया और उसका बदला स्वरूप देखा, दामिन देवी का व्यवहार और पिता के बदले हुए बोल सुनते ही मैं समझ गई कि माजरा कुछ ठीक नहीं है, लेकिन मैं कहती भी तो किससे वह सब तो अपने अपने काम में इतने मशगुल थे कि कोई किसी की बात सुनने को तैयार ही नहीं,
मसलन मैंने चुपचाप सब देखने का मन बना लिया और बिना उस नाटक का कोई हिस्सा बने शांतिपूर्वक सब कुछ देखने का मन बनाया, थोड़े ही देर में बैलगाड़ी की आवाज और मेहमानों के शोर-शराबे ने हमें यह महसूस कराया कि जिन का इंतजार कराया जा रहा था, वह आ चुके हैं,
तभी अचानक कल्पना, बेटा का स्वर गूंजा और देखते ही देखते तीन चार महिलाएं रसोई में आ धमकी , हम दोनों ने रिवाज के अनुसार सब का आशीर्वाद लिया, लेकिन हम दोनों यह समझ नहीं पा रहे थे कि मेहमान कौन है??? और कहां से आए हैं???? और किस लिए यहां आए हैं???लेकिन हमने उन सभी को पीने के लिए पानी दिया और सबको बैठने के लिए कहा,
जिस तरह कल्पना की सौतेली मां दामिनी देवी और उसके पिता ने उसे नए कपड़े पहनने और साज श्रृंगार करने को कहा हुआ था, उससे मैं कुछ कुछ समझ पा रही थी, लेकिन कल्पना इन सब से अपरिचित थीं, कल्पना को लगा की मां के कोई जान पहचान के परिचित होंगे, इसलिए वह ऐसे ही यहां आए होंगे, कल्पना की मां सब अतिथियों का आदर सत्कार करने में जुट गई।
आखिर कल्पना की सौतेली मां के दिमाग में क्या चल रहा था?????
शेष अगले भाग में.........