अगर मन में धैर्य और दाता पर विश्वास ना हो तो, कोई लाभ शेष नहीं रह जाता, और संभवत इस बात की भी उम्मीद नहीं की जा सकती कि याचक को कुछ मिल सके, यह सुनते ही लोचन कुमार का चेहरा उतर गया, क्योंकि बार-बार प्रश्नवाचक चिन्ह से रजनी देवी की और देखना , और उस विशाल खजाने को देखने का उतावलापन उनके चेहरे पर साफ झलक रहा था।
और कहीं ना कहीं उनकी बातों में या उभर कर सामने आ चुका था, जिसे बाकी पंचों ने दूसरी बातों में उलझा कर ठीक करने का प्रयास भी किया, लेकिन रजनी देवी कोई साधरण स्त्री नहीं थी, इसलिए उनसे कुछ छिप पाना आसान नहीं था।
शुरू शुरू में उन्होंने लोचन कुमार की बातों को अनदेखा कर दिया, शायद इसलिए क्योंकि उन्होंने इस समय धनंजय जी के ऊपर अपना ध्यान केंद्रित कर रखा था, जो उनके कुल के दामाद थे, और समय की कमी और पल पल के महत्व को वह भी भली-भांति जानते थे।
सभी बातें सुनने और वार्ता के पश्चात उन्हें रजनी देवी ने महल के एक कमरे में ले जाकर खड़ा कर दिया, और कहना प्रारंभ किया।
पंचों यह कक्ष किसी समाधि स्थल से कम नहीं है, अनेकों शस्त्र के खजाने तक पहुंचने का यह रास्ता हैं, जिसे शायद देव शिल्पी श्री विश्वकर्मा जी या असुर शिल्पी माया सुर के लगभग बराबरी वाला किसी महान व्यक्तित्व के द्वारा बनाया गया है,
इसलिए मैं आप सबको सचेत कर देना चाहती हूं, कि इस स्थान पर आप यदि सच्चे मन से पूर्ण धैर्य और विश्वास के साथ उस खजाने को प्राप्त करने हेतु अनुनय करोगे तो वह अवश्य ही पूर्ण होंगी।
लेकिन ध्यान रखना आदेशों का, सख्ती से पालन होता है, यह कहते हुए वे धनंजय जी के साथ आए, शेष व्यक्तियों को एक विशेष स्थान पर खड़ा कर खुद थोड़ी दूरी पर जा एक सिंहासन पर जा बैठ गई।
वे सिंहासन पर किसी राजलक्ष्मी से कम सुशोभित नहीं हो रही थी , कि तभी उन्होंने इशारा किया और सभी पंचों ने अपने मन की मुराद और इच्छा प्रकट की, और देखते-देखते पल भर में अचानक अनेकों स्वर्ण आभूषण और मुद्राएं प्रकट हुए।
सिर्फ लोचन कुमार अगल-बगल झांकते रह गए , और आतुरता से यह कहने लगे, यह क्या छल हैं?????क्या वाकई इतना स्वर्ण हमारे समीप है, या यह सिर्फ आंखों का धोखा है, और यदि यह सच भी है, तो इसे वहां तक ले जाना कैसे संभव होगा ??????
यह या तो हमारी खुद की सुरक्षा के लिए ही घातक हो जाएगा, कहते हुए उसने प्रश्नवाचक मुद्रा से रजनी देवी और शेष पंचों की ओर देखा ,और अपनी पुष्टि के लिए आगे बढ़कर एक स्वर्ण मुद्रा उठा, उसकी प्रामाणिकता की जांच करने लगा।
और शायद उनकी इसी दुष्टता और उतावलेपन को देख रजनी देवी को अचानक क्रोध आ गया, और वह अचानक उस सिंहासन से उठ खड़ी हुई, और देखते ही देखते उस खजाने का पांचवा भाग विलुप्त हो गया।
धनंजय जी ने जब रजनी देवी को देखा, तो शांत भाव से रजनी देवी से क्षमा मांगते हुए, लोचन के अनुभव और धैर्य की कमी को स्वीकार किया, और साथ ही साथ लोचन को धैर्य एवं विश्वास को बनाए रखने के लिए इशारा किया।
उन्होंने तो लोचन से यह तक कह दिया कि यदि शक्तियों की बात न मानी जाए और उसे अनुचित व्यवहार और प्राणों से भी हाथ धोना पड़ सकता है, तब कहीं लोचन शर्मिंदा से शांत होकर क्षमा मांगने लगा ,और सिर्फ अनुसरण करने में ही अपनी भलाई को समझ रजनी देवी से माफी मांगी।
तब कहीं पुनः हवा के झोंके से वह पांचवा हिस्सा प्रकट हुआ, अब सवाल यह उठता है कि आखिर कितनी संपत्ति को कैसे लेकर गंतव्यत स्थान तक पहुंचाएंगे, क्योंकि इतनी धन संपदा को लेकर इतनी दूर तक का सफर करना और फिर उसे उचित कार्य में लगाना बहुत बड़ा मुश्किल काम था।
इसलिए धनंजय जी ने रजनी देवी को इस हेतू सुझाव मांगा, तब रजनी देवी ने उन्हें उस युग की सबसे बड़ी शक्ति जिस पर देवी और असुरी दोनों की शक्ति की कृपा हो , या यूं कहे कि दोनों शक्तियों का समावेश उन्हें पुकारने का आदेश दिया,
लेकिन ऐसा कर पाना उन पंचों के बस में न था, तब रजनी देवी ने धनंजय जी को इशारा कर, अपनी सासु मां का सहारा लेने की युक्ति सजाई।
धनंजय जी इशारा पा उनके कमरे की ओर बढ़े, और जाकर क्या देखते हैं कि, उन्होंने जिस स्थान पर थोड़ी ही देर पहले अपनी सासू मां से बात की थी, और उनके दर्शन किए थे, वहां उनके दिवंगत होने की सूचना छः माह पहले की तिथी के साथ लिखी थी,
घबराकर धनंजय जी आसपास देखने लगे, तभी वहां एलिना प्रकट हुई, और उनके साथ उनकी सासू मां की आत्मा भी ।
उन्होंने बताया कि मृत्यु के समय वह चंदा से मिलना चाह रही थी, लेकिन सूचना पहुंचने में काफी देर हो जाती,और क्या पता आप खुद सूचना को बताएं, सत्य को स्वीकार कर लेते, जैसे सत्य जानने पर भी कुछ कुछ प्रश्न इनके दिल और दिमाग में थे,
इसलिए भय था और वो कुछ ना कर पाई, लेकिन जमा पूंजी और संपत्ति का मालिकाना हक उसके उत्तराधिकारी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी उनके कंधों पर थी, इसलिए उन्होंने मृत्यु के पश्चात भी अपना साहस ना छोड़ा और कायरा की और निकली ।
अब उनकी समस्या के समाधान के लिए भी कायरा के साथ लिए प्रकट हुई थी, धनंजय जी भी कुछ समझ ना पाए, बस उन्हें शर्मिंदगी और दुख हुआ कि एक स्त्री को अपने भावों को इस पुरुष प्रधान समाज में ना जाने की कितनी दफा बिना प्रकट किए रखना पड़ता है।
अफसोस की बात मृत्यु के पश्चात भी अपनी बातों को सिद्ध कर लेना कामयाबी नहीं होती, कायरा ने धनंजय की मदद के लिए प्रथम बार ईश्वरी शक्ति का आह्वान किया, और सलाह मांगी, क्योंकि यह कार्य उसके लिए पूर्ण रूप से नया था,
मैंने वहां रखी हुई पांच सुराइयों में जल की तरह शक्ति का उपयोग कर, उस खजाने को छिपा दिया, और कायरा को बताया कि खजाने को सिर्फ उसका सच्चा अधिकारी चंदा ही दोबारा प्रकट कर पाएगी।
और तब इस तरह फिर मेरी सखी ने उनकी समस्या का समाधान कर उन ग्राम वासियों तक चंदा के माध्यम से उस धन को उपलब्ध करवाया, और उसका सदुपयोग कर वह ग्राम अब रजनी देवी के साथ चंदा की मां और उसकी शेष सखी कम बहनों को भी उतना ही सम्मान देने लगे, जिसकी वे सच्ची हकदार थी।
इस हेतु एक बड़े बगीचे का निर्माण स्मृति स्वरूप उनकी मूर्तियों के साथ किया गया, जिससे आने वाली पीढ़ियों की उस गांव के जीर्णोद्धार करने वाली महान आत्माओं को यह कह धन्यवाद दे सके,
लेकिन सफर सिर्फ यही तक समाप्त नहीं होता, बिना जाने कितने ही सत्य शेष थे ,जो भविष्य में हम दोनों के लिए जानना अनिवार्य थे, लेकिन क्या??????
शेष अगले भाग में.......