यदि आपको ऐसा लगता है , कि मैंने रजनी देवी का नाम लेकर गलत किया है तो बेशक मैं आपकी गुनहगार हूं, लेकिन जब बात पूरे समाज और राज्य को बचाने की हो, तब मेरा या आपका अस्तित्व शून्य से कम ना हो।
मैं सिर्फ यह सोचकर उस मार्ग को ना बताऊं, जिस पर चलने में हमें थोडी तकलीफ हो, लेकिन समाज का काम बन जाए, तब ऐसे समय में आप ही बताएं कि मेरा निर्णय भला कहां तक गलत है?????
क्या आपको लगता है कि और कोई हमारी मदद कर पाने में सक्षम है, या आपको मेरी बातों पर विश्वास नहीं कि रजनी देवी ही हमारी मदद कर सकती, मैं सच कहती हूं, वाकई किसी छिपे खजाने की तरह नगरवधू कोष का संचालन आज भी होता है,
क्योंकि समाज ने सिर्फ अपना चेहरा बदला है, व्यवहार नहीं, यह कड़वा सच है कि आज भी भले ही नगरवधू शाला को समाज में कुलिन दृष्टि से देखा जाता हो, लेकिन समाज का संतुलन बनाए रखने में उससे बड़ा कोई दूसरा सहायक नहीं।
जो चेहरे दिन के उजाले में अपने सफेद पोषी और संस्कारवान होने के ढोंग में नजर आते हैं, उन्हें अक्सर रात के अंधेरे में उस गली में पिछले दरवाजे से निकलते हुए देखा जा सकता है, जो सारी दुनिया को झुकाने में दिन रात लगे रहते हैं।
उनके मस्तक अंधेरी रात में कहां झुकते हैं, यह आप भली-भांति जानते हैं, सारे जमाने की शक्तियां मिल कर भी नारी सौंदर्य की महिमा को नकार नहीं सकती।
जब ऋषि मुनि अपनी साधना छोड़ अपना विवेक खो बैठे, तब सामान्य मनुष्य की क्या औकात और फिर बुराई ही क्या है, मैं तो यह मानती हूं कि संपूर्ण समाज में एक स्त्री ही है,जो किसी भी कार्य को शत-प्रतिशत एक ही भावना से निभाती है, चाहे फिर वह नफरत हो या प्यार, छल हो या दुलार जिस पल लुटाती है, तो सब कुछ लुटा दे और छिनना चाहे तो उसके लिए बर्बादी के अंतिम चरण पर खुद को भी मिटा दे।
उसका सबसे बड़ा गुनहगार मैं उन्हीं शास्त्रों को बता सकती हूं, जिनकी बढ़-चढ़कर दुहाइयां दी जाती है, कहो क्या आप इस बात से इंकार कर सकते हैं????
आप तो सरपंच है इस गांव के????
क्या आज आपका आत्मसम्मान अपने कर्तव्य के आड़े आ रहा है?????
या संकोच है आपको रजनी के दर पर जाने से????
यह ना कहना कि मैंने राह न दिखाई, जो मेरे बस में था मैंने किया , और यह भी कह दूं, यह सवाल मुझसे दोबारा ना करना।
अपने दिए वचन के अनुसार उस महान कोष के बारे मैं कैसे जानती हूं, यदि यकीन है तो आप जाइए,यह कहते हुए चंदा देवी अचानक उठ खड़ी हुई, जैसे उन्हें किसी की पहचान सुनाई दी हो, और वह सही भी थी।
भाभी सा ने दरवाजे पर आकर दस्तक दी, और उनके आते ही सरपंच उठ खड़े हुए, भाभी सा का स्थान उनका जीवन में मां से भी बढ़कर था, महज ग्यारह वर्ष की उम्र में जब मां चल बसी थी, तब अपने सगे बेटे की तरह बड़े प्यार दुलार से उन्होंने ही तो धनंजय को पाल पोस कर बड़ा किया था।
धनंजय को पुरा गांव श्यामल सखी का बेटा कह कर पुकारते थे, श्यामल सखी धनंजय की भाभी नहीं अपितु मां से बढ़कर थी,
उन्होंने अपने विवाह के महज तीन माह के पश्चात ही अपनी सासू मां का स्वर्गवासी देखा तो, देखने वालों का ऐसा लगा जैसे उन्होंने अपनी सगी मां को खो दिया हो, उस दिन पूरा गांव देर रात तक श्यामल के साथ बैठा रहा, जिसकी खबर खुद श्यामल को भी नहीं थी,
वो तो बेसुद जैसे अपनी मां को गोद में लिए बरांदे में बैठी थी, लेकिन श्यामल सिर्फ़ उस घर की बहू नहीं, वरण उस गांव की स्त्रियों की सखी थी,इसलिए जैसे ही उसे दुख में देखा, सारी स्त्रियां एक साथ उसके घर में ऐसे आ समाई थी, जैसे सभी सभी नदियां आकर समुद्र में मिलती है।
खुद उस समय के सरपंच रहे श्यामल के ससुर जी ने पहली बार पूरे गांव को एकजुट,एक स्थान पर देर रात तक बैठे हुए देखा, क्या बच्चे, क्या बूढ़े, जवान और बुजुर्ग महिलाएं, सब कुछ यहां तक की गली और चौराहों के कुत्ते भी उस श्यामल की दुख भरी आवाज को सुन इकट्ठे हो गए , क्योंकि सबके लिए श्यामल का भाव एक जैसा था।
श्यामल ने सिर्फ तीन माह में ही पूरे गांव को एक सूत्र में बांध दिया था, आज लगभग चार सौ बीघा जमीन के मालिक सरपंच ने अपने सारे नौकरों को लोगों की सेवा में लगा देने के पश्चात भी उन्हें अपना दुख अपनी बहू के दुख के सामने कम नजर आ रहा था,
इससे साफ कल्पना की जा सकती है ,कि श्यामल अपनी सास को क्या मानती थी, और लोगों के बीच श्यामल की क्या पहचान थी, दूसरे दिन जब तड़के सुबह अंतिम यात्रा निकली तो, गली चौराहे को जैसे लोगों ने इत्र और फूल से सजा रखा था।
पूरी भीड़ ने जाकर गंगा जी में डुबकी लगाई, और अंतिम क्रिया को पूर्ण किया।
यह पहली दफा था जब समाज का कोई भी वर्ग अपनी स्त्रियों को उस अंतिम क्रिया में जाने से रोक पाता, सब ने बढ़ चढ़कर उस अंतिम यात्रा में भाग लिया, यह स्त्री संगठन का अप्रतिम नजारा शायद पहली बार गांव में नजर आया।
जब धनंजय चिता को अग्नि देकर दहाड़ता हुआ श्यामल देवी से आकर लिपट कर रोने लगा, तब बड़े प्यार से श्यामल देवी ने उसे अपने पुत्र की तरह आगोश में भर कर यह घोषणा की, कि जब तक धनंजय खुद विवाह करके अपना परिवार ना बसा ले, तब तक वह उनकी एकमात्र संतान है।
एक नवविवाहिता का एक ऐसा कठोर निर्णय और वचनबद्धता देखते में तब आई , जब उसने अपना वचन निभाया,उसको लोगों ने बहुत समझाने का प्रयास किया, लेकिन वह किसी की भी बात मानने को तैयार नहीं थी।
उसके पति जयदेव ने भी अपनी पत्नी का साथ अडिक रहकर दिया।
जब भी कोई पूछता या समझाने का प्रयास करता, जयदेव सिर्फ एक ही बात कहते, मैं उन दोनों मां-बेटे के बीच नहीं आना चाहता, और श्यामल का निर्णय और उसका लिया हुआ वचन का पालन करना मेरे लिए भी उतना ही अनिवार्य है, यह मैंने विवाह के समय ही उसे कह दिया था।
फिर कौन सी उम्र बिती जा रही है,धनंजय अभी मुझसे छोटा है, उसे अभी ज्यादा जरूरत है मां की, और फिर एसी पत्नी मिलना सौभाग्य की बात है, कहकर वे टाल जाते हैं।
इन सबके बीच सरपंच भी जो वाकई अपनी पत्नी को अपनी शक्ति से कम नहीं आंकते थे, आखिर कब तक उनके बिना जीवन चलता ।
गांव में श्यामल सखी की मान मर्यादा और ग्राम वासियों का सम्मान अपने बहू के प्रति देख उसकी त्याग भावना को मध्य नजर रखते हुए उन्होंने श्यामल सखी को बिना किसी रोक-टोक, और उस समय के पंचों की राय ले, उस संपूर्ण ग्राम की पहली महिला सरपंच के रूप में नियुक्त कर चिंता मुक्त हुए, और कुछ दिनों के पश्चात ही चल बसे।
शेष अगले भाग में......