कितने अजीब होते हैं ख़ुशी के पल
सब रखना चाहते हैं इन्हें संजो कर
पर यह मुट्ठी में पकड़ी रेत से
फिसलते ही जातें हैं
कितनी अजीब होती हैं दूरियाँ
कभी यह बनाएँ नहीं बनतीं
तो कभी मिटाए नहीं मिटतीं
कितने अजीब होते हैं आँसु
ख़ुशी हो या ग़म, छलकते हैं तो
मन हल्का कर जाते हैं
कितनी अजीब है यह ज़िंदगी
सब जीना चाहते हैं
अपनी शर्तों पर
पर यह चलाती है हमें
अपनी ही शर्तों पर
१९/११/१७
जिनेवा