कहां अब सरस-सहज अपना सा बचपन
एकल परिवार में दादी-नानी बिन जीवन
बचपन सिसक रहा आया-मेडों के बीच
रही नहीं मान-मनुहार-ममता की सींच
पीठ चढ़ने की उम्र में बस्ते पिट्ठू से भींच
जैसे-तैसे कर बचपन खुद को रहा खींच
कहां रहे बाग आम के कैसा कैरी स्वाद ?
रहे न घर-आंगन, वह सीढ़ी की ऊंचीकूद
कैसे भीग कर जाने बचपन मेघा की बूंद
खोज रहे बच्चे पहिचान, खुद आंखे मूंद
कैसे सरसेगा मन बिन आंचल की छांव
कहां है बहती अब कागज की वो नाव ।
हाथी के पीछे भागना,टार्चअंधेरे में जुगनू
तितली,लाल रंग वीरबहूटी,पिल्लों की कूं
पोती को सुना कहानी संस्मरण जीती हूं
गमलों में लगा पौधों को ओसबूंद देती हूं
कर कुछ कोशिश हम ही साकार कर दें
आओ बचपन को दे आकाश खुशी भरदें
स्वरचित डा.विजय लक्ष्मी