अभी तक आपने पढ़ा -शब्बो को देखने के लिए उनकी पड़ोसन का भतीजा बलविंदर और उसका परिवार आता है। बचपन में ,शब्बो को भी बलविंदर पसंद था ,उसने ही बलविंदरका नाम प्यार में 'बल्लू ''रखा था। किन्तु उसने बरसों से कोई सम्पर्क नहीं रखा और आज अचानक उसकी बुआ, उसका रिश्ता लेकर आ गयी। शब्बो को कुछ अजीब लगा।जब बलविंदर और शब्बो को अकेले में बात करने के लिए कहते हैं ,तब शब्बो अपने मन की बात ,बलविंदर से कहती है - कि तुमने एक बार भी ,मेरे विषय में जानने का प्रयत्न नहीं किया ,न ही मुझे एक छोटा सा' धन्यवाद 'भी बोला -तब बलविंदर के विचार सुनकर उसे लगा कि ये वो बलविंदर नहीं, जैसा मैं सोचती थी ,तब वो उससे एक प्रश्न और पूछती है -क्या तुम्हारी जिंदगी में अभी तक कोई लड़की नहीं आई ,तब बलविंदर को ,'निहारिका 'का स्मरण होता है ,वो कुछ कहता ,उससे पहले ही उसकी बुआ उसे बुला लेती है ,अब आगे -
बलविंदर नीचे आता है ,किन्तु उसके पीछे शब्बो नहीं आती।
जी..... बुआजी कहकर बलविंदर अपने परिवार के बीच जाकर बैठ जाता है।
जी बुआजी..... क्या ?शब्बो से बात हो गयी ,पसंद तो तुझे वो पहले से ही थी ,अब बता !आगे कार्यक्रम बढ़ाया जाये।
जैसी आपकी इच्छा...... !
शब्बो अपने कमरे में उदास बैठी थी ,जो उसने बलविंदर में देखना चाहा ,वो उसे नहीं मिला। अब दबी चिंगारी को हवा देने से कोई लाभ नहीं ,उससे भड़की आग में ,शायद कुछ रिश्ते ,कुछ भ्र्म झुलसकर न रह जाएँ। वो अपनेआप को टटोलकर देख रही थी ,कहीं , ये सब मैं समीर के कारण ही तो नहीं कर रही। उसे भी तो अभी जाना नहीं ,न ही उसके मन को पहचान पाई हूँ ,उसके मन में क्या है ?ये भी तो नहीं जानती। वो अपनी हालत पर ही झुंझला उठी।
पहला प्यार ,आया भी ,किन्तु मैं उसके लिए नहीं हूँ ,मुझे नहीं लगता ,हम जीवनभर एक -दूसरे का साथ निभा पायेंगे ,इसने तो दो शब्द ऐसे नहीं बोले, कि मुझे लगे ,वो मेरा है या मेरा बनकर रहेगा ,फिर क्यों वो पुनः मेरे जीवन में प्रवेश करना चाहता है ?उसकी वो नजरें...... उफ़.... अभी वो अपने ही बनाये , सवाल -जबाब के कटघरे में खड़ी थी।
तभी बाहर से किसी की आवाज़ आई -अरे.... शब्बो किधर रह गयी ?उसे तो बाहर बुलाओ !
शब्बो ने अपना दुपट्टा ओढ़ा और बाहर आ गयी। अब वो जाकर सीधे अपनी मम्मीजी के समीप बैठ गयी। उन्होंने प्यार से उसे देखा ,और बोलीं -सब ठीक !
शब्बो ने 'हाँ 'में गर्दन हिलाई।
तभी चेतना यानि बलविंदर की बुआ बोली -देखो जी ,हमारे बलविंदर को तो शब्बो पहले से ही पसंद है ,अब अंगूठी की रस्म भी कर लेते हैं।
शब्बो थोड़ा विचलित हुई ,और बोली -अभी इतनी जल्दी.....
ओय..... इसमें जल्दी कहाँ ?तुझे हमारा' बल्लू' पसंद है ,कहकर उन्होंने गहरी मुस्कुराहट के साथ शब्बो की तरफ देखा। हमें तुम....... ! और क्या किसी का इंतजार करना है ?
अभी मुझे अपनी पढ़ाई पूरी करनी है।
पढ़ाई.... पढ़ाई अब क्या करना है ? इतनी पढ़ाई करके ,हमारे बलविंदर ने भी तो ,अपने पिता का क़ारोबार संभाल लिया ,तू भी इनका घर संभालना। अब तुझे पढ़कर कोई कलेक्टर तो बनना नहीं है फिर भी तुझे पढ़ना ही है ,तो क्या ब्याह के बाद लड़कियां पढ़ती नहीं ? तब पढ़ लेना कहकर उन्होंने बात को संभाला।
अब तो शब्बो के पास कोई बहाना ही नहीं रहा और बेबसी से अपनी मम्मीजी की तरफ देखने लगी। पम्मी कुछ कहती, इससे पहले ही चेतना बोल उठी .......
अब क्या है ?जी....... लड़का -लड़की आपस में ही एक -दूसरे को पसंद कर लेते हैं ,हम बड़ों की तरफ से तो मात्र औपचारिकता रह जाती है। ''जब मियाँ बीबी राजी ,तो क्या करेगा काज़ी। ''कहकर हंसने लगीं।
शब्बो को लगा -ये चाची जी ,जबरदस्ती मुझे फंसवाकर मानेगी ,अब ये भी तो नहीं कह सकती मुझे थोड़ा समय दीजिये ,मुझे इस बलविंदर के बच्चे को ,समझ तो लेने दीजिये ,ये क्या बला है ? किन्तु ये बातें मन ही मन सोचकर रह गयी। आखिर वो एक लड़की है ,जिसे समाज के साथ -साथ ,अपने माता -पिता के मान -सम्मान का भी ख़्याल रहता है ,इतने लोगो में किसी के लिए ,ऐसी कोई भी बात वो करना नहीं चाहती थी इसीलिए चुप रही।
पम्मी और उसके पति को भी लड़का ठीक लगा ,सबकी तरफ से ''हाँ 'होने पर ,आखिर 'अंगूठी ''की रस्म कर ही दी गई। पम्मी के घरवालों ने भी ,लड़के का टीका कर दिया।
दोनों तरफ से बधाइयाँ दी जाने लगीं ,एकांत जान बलविंदर ने शब्बो का हाथ पकड़ा किन्तु शब्बो ने धीरे से अपना हाथ उसके हाथ से छुड़ा लिया। वो मन ही मन बुदबुदाया ,कुछ ज्यादा ही भाव खा रही है ,आएगी तो मेरे ही घर ,तब तेरे ये सारे तेवर निकाल दूंगा।
शब्बो को लगा- शायद ये मेरे ही विषय में कुछ कह रहा है ,बोली -कुछ कहा क्या ?
नहीं...... कहकर उसने मुँह फेर लिया।
अगले दिन शब्बो कॉलिज में पहुँची ,जिस लड़की की सगाई हो और उसके हाथों में किसी की निशानी चमक रही हो। चेहरे पर तो स्वतः ही नूर आ ही जाता है ,शब्बो तो पहले से ही ख़ूबसूरत है। ऊपर से वो शिल्पा 'ढ़ोल का पोल 'सभी से बता दिया ,शब्बो का रिश्ता पक्का हो गया। अब तो सभी उसे अजीब सी निगाहों से देख रहे थे।
समीर आज स्वयं उसके समीप आया और बोला -बधाई हो ! तुम्हारा रिश्ता पक्का हो गया। उसका उदास चेहरा देखकर शब्बो बोली -ये तो एक न एक दिन होना ही था ,मम्मी -पापा के सर पर से एक ज़िम्मेदारी का बोझ तो उतरा।
उन्हें इतनी जल्दी क्यों थीं ?तुम कहीं भागी जा रही थीं ,थोड़े दिन और रुक जाते।
थोड़े दिन और रुककर क्या हो जाता ?शब्बो ने जानबूझकर उससे पूछा।
तब तक ,मैं थोड़ा सम्भल जाता ,अपनी और तुम्हारी ज़िम्मेदारी उठाने लायक हो जाता और..... कहकर रुक गया किन्तु शब्बो तो बात को पूरा सुनना चाहती थी।
और... क्या...... ?अपनी बात तो पूरी करो !
समीर ने ,उसकी तरफ देखा ,क्या तुम नहीं समझ रहीं ,या न समझने का अभिनय कर रही हो।
मैं भी तो इंकार कर सकती थी ,किन्तु तुमने भी तो कुछ कहा ही नहीं। क्या कहती ,कल को तुम स्वीकार न करते तो.....
ये बातें समझने की होती हैं ,हर बात कही नहीं जाती।
ऐसा नहीं है ,तुम्हारे व्यवहार से मैं कुछ भी कैसे समझ सकती हूँ ?गलतफ़हमी भी तो हो सकती है। जब तक उस रिश्ते अथवा सोच पर शब्दों की मुहर न लगे ,तब तक अपने को झुठलाना व्यर्थ है। जिस तरह तुम आज बातें कर रहे हो ,इस तरह पहले कभी नहीं की।
मैं तो कहने ही वाला था कि.........
कि क्या.. कि और क्या में ही समय व्यतीत करते रहना !उसकी बातों से परेशान होकर शब्बो बोली।