आज समीर ने अपने मन का दर्द ,शब्बो के सामने खोलकर रख दिया। अभी तक वो चुप ही था किन्तु जब आज वो उसकी ज़िंदगी में दुबारा दिखी और वो भी एक ब्याहता के रूप में ,तो अपने को रोक नहीं सका। आज भी शब्बो अपने लिए नहीं ,शिल्पा के लिए ही तो आई है। उसने कभी भी ये जानने का प्रयत्न नहीं किया कि समीर क्या चाहता है ? दो सहेलियों के बीच उसकी ज़िंदगी क्या से क्या बनकर रह गयी है ?जिसको वो चाहता है ,वो उसकी न बन सकी जो उसकी बनी ,वो समीर की मजबूरी बन गयी। और उसी मजबूरी को शब्बो उससे दुबारा ओटने के लिए कह रही है। वह कैसे फिर से उसी अनचाहे रिश्ते में बंध जाये ? क्या तुम अपने इंस्पेक्टर साहब से खुश हो ? समीर ने शब्बो से ही प्रश्न कर डाला।
उसकी उम्मीद के विपरीत शब्बो ने 'हाँ 'में जबाब दिया ,बोली -इंस्पेक्टर साहब अच्छे हैं ,मुझसे प्यार भी करते हैं।
इसीलिए तुमने उनसे ये समझौते का विवाह किया।
समझौता कैसा ? ज़िंदगी में हम सभी कहीं न कहीं ,किसी न किसी से ,किसी न किसी बात पर समझौता करते ही हैं। मुझे तो लगता है ,जैसे ये ज़िंदगी समझौतों पर ही टिकी है। कई बार हम जानबूझकर करते हैं ,कभी अनजाने में और कभी मजबूरी में। हम किसी भी और कैसी भी स्थिति में हों ?हर बार मनचाही नहीं होती। जब हम अपनों से प्रेम करते हैं ,तो समझौता कर ही लेते हैं ,फिर चाहे वो, हमारी अपनी ज़िंदगी ही क्यों न हो ? दूसरी परिस्थिति ये है कि हम किसी भी हालात में समझौता तब नहीं करेंगे जब हम सिर्फ और सिर्फ़ अपने लिए सोचें। हम स्वार्थी हो जाएँ। हमारे हालात में, मेरे पापा की मजबूरी मेरे सामने स्पष्ट थी मैंने शायद अभी समझा नहीं किन्तु इंस्पेक्टर साहब अवश्य ही मुझसे प्रेम करते हैं। मैं भी उनकी भावनाओं की कदर करती हूँ। तुमसे शिल्पा प्रेम करती है। वो मुझसे नफ़रत करेगी किन्तु तुम्हें हानि पहुंचाने का नहीं सोचेगी। उसका यही प्रेम कहीं न कहीं , तुम्हें भी ये सब सोचने के लिए मजबूर कर सकता है। तुमने कभी देखा है ,या पढ़ा है वो तो बहुत ही क़िस्मतवाले होते हैं ,जिनको उनका प्रेम मिल जाता है।
मैं तुमसे कोई जबरदस्ती नहीं करूंगी ,ज़िंदगी तुम्हारी अपनी है ,अब इस पर मेरा अपना कोई अधिकार नहीं रहा।
वो अधिकार तो तुमने स्वयं ही छोड़ा है ,मैंने तो मना नहीं किया था ,कहकर समीर ने शब्बो की आँखों में देखा।
हाँ ,मैंने ही छोड़ा और अपनी इच्छा से छोड़ा क्योंकि अब तुम्हारी ज़िंदगी से कोई और जुड़ चुका था। वो भी उस समय मेरा दोस्ती का रिश्ता था।
यार.... तुम किस मिटटी की बनी हो ? तुम्हारी जगह कोई और होती तो अपने प्यार के लिए अपनी ही दोस्त से भिड़ जाती।
हाँ ,भिड़ जाती ,यदि उसका विवाह तुमसे हुआ न होता। जब तक मैं पुनः तुम्हारी ज़िंदगी में आई ,तब तक वो तुम्हारी ज़िंदगी में आ चुकी थी।उसने भी तुम पर तभी अधिकार जतलाया ,जब मैं तुम्हारी ज़िंदगी से जा चुकी थी। मेरी दुबारा आने की उम्मीद तो ,न ही तुम्हें होगी ,न ही उसे। मैं मानती हूँ ,उसने जो कुछ भी किया जानबूझकर किया किन्तु अब मेरे मन में ,न ही उसके प्रति ,न ही तुम्हारे प्रति ,कोई शिकवा -शिकायत नहीं है। अब तो बस ये ही चाहती हूँ ,तुम्हारा घर भी बस जाये और तुम भी मन को स्थिर कर अपनी घर -गृहस्थी में रम जाओ ! आज आई थी, पापा से मिलने अब पता नहीं ,कब मिलना हो ? तुम चाहो तो ,फोन भी कर सकते हो सिर्फ़ मेरी सहेली के पति होने के नाते। मेरी ज़िंदगी में दुबारा रंग भरने लगे हैं ,मैं नहीं चाहती वो किसी भी तरह से फ़ीके हों। हम ज़िंदगी को बार -बार इसी तरह मौक़े देते रहे तो ज़िंदगी समझने में ,ज़िंदगी ही छोटी पड़ जाएगी।
समीर क्रोध की अग्नि में जल रहा था किन्तु शब्बो न जाने किस दिशा की ओर चल पड़ी थी ?न उसके मन में किसी के प्रति द्वेष ,न भेद -भाव ,न ही ईर्ष्या। उसने अपनी चाय समाप्त की। समीर के मम्मी -पापा से आज्ञा ली और अपनी उसी स्कूटी से वापस अपने घर की ओर चल पड़ी।
विद्यालय के प्रांगण में खड़े होकर उसने अपने विद्यालय को निहारा। ये क़िताबी ज्ञान तो देता है किन्तु ज़िंदगी की पाठशाला में वो नहीं होता ,जो यहाँ सिखलाया जाता है किन्तु हम शिक्षक जीवन के दोनों पहलू जी चुके तो होते हैं किन्तु अपने अनुभव उन्हें नहीं सिखा सकते। सबकी अपनी ज़िंदगी है ,सबके अनुभव भी अपने हैं।
तभी अंदर से ,सरोज आई और शब्बो को देखकर बोली -दीदी !आप.......
हाँ घर आई थी ,सोचा -आज अपने विद्यालय को भी निहार लूँ। तुम यहाँ अब तक क्या कर रही थीं ?
जी...... छुट्टी के पश्चात ,सारी जाँच मैं ही करती हूँ कि कहीं किसी का कोई सामान छूट तो नहीं गया या कोई बच्चा रह तो नहीं गया।
अच्छी बात है ,कहकर शब्बो चलने के लिए उठने ही वाली थी ,तभी उसे करतार आता दिखा। समीप आकर बोला -चलो ! अच्छा हुआ तुम यहीं मिल गयीं ,दोनों साथ ही चलते हैं।
जी..... कहकर शब्बो ने उसे अपनी स्कूटी पर बिठा लिया ,अचानक ही करतार बोला -तुम्हारी वो दोस्त ,क्या नाम था उसका ?सोचने का उपक्रम करते हुए बोला -अरे वही........ समीर की पत्नी।
शिल्पा !!
हाँ ,हाँ वही ,अब वो साथ हैं या नहीं ,तुमने पता किया।
शब्बो सोचने लगी ,ये पुलिसवाले यूँ ही कुछ नहीं पूछते ,कहीं करतार को पता तो नहीं चल गया कि मैं समीर से मिलने गयी थी। अपने मन को स्वयं ही समझाया ,मिलने भी गयी थी तो इसमें छुपाने वाली बात क्या है ?नहीं...... अभी साथ नहीं रह रहे।
अच्छा तुम्हें कैसे पता चला ?
मैं जब इधर आ रही थी ,तब मैंने शिल्पा को देखा।
क्या, तुम्हारी उससे बात हुई ?
नहीं ,क्योंकि उसकी पीठ मेरी तरफ थी और मैं दूसरी तरफ ,जैसे ही वो मुड़ी तब मुझे पता चला कि वो यहीं है।
अब तो बहुत दिन हो गए ,अब तो समीर को उसे माफ कर ,अपने पास बुला लेना चाहिए।
क्या आपको लगता है ?उसका जुर्म माफ करने लायक था।
हाँ -हाँ क्यों नहीं ,अरे हमारे यहाँ तो ख़ूनी को भी मौका दिया जाता है ,एक बार अपनी सफाई पेश करने का ,उसने तो फिर भी ये सब प्यार की ख़ातिर किया।
शब्बो ने उसकी तरफ देखा ,और पूछा -क्या तुम उसकी जगह होते तो माफ़ कर देते !