अभी तक आपने पढ़ा ,-शब्बो यानि शबनम तारों की छाँव में ,अपने पति करतार के साथ छत पर ,वहां के वातावरण का लुत्फ़ उठा रही है ,वो अपने पति के संग तो है किन्तु उसका मन तो ,कई बरस पीछे गया हुआ है। उसे उस चांदनी में ,तारे नहीं वरन अपनी ज़िंदगी के वो लम्हें स्मरण हो रहे हैं, जो वो कई बरस पीछे छोड़ आयी। उन्हें वो छोड़ तो आई ,किन्तु वे स्मृतियाँ आज भी उसके 'मानस पटल 'पर अंकित हैं। गाहे -बगाहे उसे झंझोड़ ही जाती हैं। उन स्मृतियों में ,उसका पहला प्यार ''बलविंदर ''भी है। जो उसके अनुसार -''बड़ा ही सोहणा मुंडा ''था। उसने पहली मुलाक़ात में ही ,शब्बो को ''जलपरी ''का नाम दिया। पहले तो वो इस नाम से चिढ़ गयी और उसने भी'' बलविंदर ''को नया नाम दिया'' बल्लू ''किन्तु बलविंदर ने इस नाम से साफ इंकार कर दिया। शब्बो की मम्मीजी ''पम्मी ''अपनी पड़ोसन के घर जाती हैं और पता लगाती हैं ,कि वो ''सोहणा मुंडा होर कोई नहीं ''टोनी के मामा का मुंडा है ,जो अपनी बाहरवीं कक्षा के पेपर देने के लिए आया है।पम्मी को तो वो मुंडा बहुत पसंद आता है और अपने पति से अपने मन की बात भी कह देती है जिसे शब्बो भी सुन लेती है ,अपने और अपनी मम्मी के विचार मिलते -जुलते सोचकर ,शब्बो मन में अत्यंत प्रसन्न होती है। अब आगे -
वो तो पहले ही दिन ,उस पर मर मिटी अब तो उसकी मम्मीजी भी उसे पसंद करने लगी हैं। काश..... वो भी उसे पसंद करे ,अच्छी तो उसे लगी हूँ ,ऐसे ही नहीं ,कोई नया नाम दे देता। ''जलपरी ''बोलने मात्र से ही ,उसके कानों में ''जलतरंग ''सी बजने लगी। वो अक्सर शाम को छत पर चली जाती ,यही सोचकर -शायद वो भी छत पर आये , उसमें और मुझमें वही मीठी तकरार हो ,किन्तु कई दिन हो गए ,वो दिखा ही नहीं। शब्बो की बेचैनी बढ़ने लगी। उस दिन तो पतंग उडा रहा था और अब अचानक कहाँ गायब हो गया ?तभी उसे अपनी मम्मी की कही बात भी ,स्मरण हो आई -वो अपने पेपर देने आया है। वो उसके घर के आस -पास अपनी किसी भी सहेली के संग मंडराने लगी। उसे स्वयं ही समझ नही आ रहा था कि ये सब वो क्यों कर रही है ?एक दिन शब्बो ने उसे घर से बाहर निकलते देख लिया ,उसे देखते ही जैसे होश खो बैठी और बोली -मम्मीजी ,मैं जरा अपनी सहेली के घर जा रही हूँ और बाहर निकल गयी। लगभग दौड़ती सी उसके आगे से निकल गयी।
कुछ आगे जाकर ,पीछे मुड़कर देखा तो, वो नहीं था।ये सब क्या ?वो कहाँ गया ?मैं उसके आगे से निकलकर गयी, उसे पता ही नहीं चला ,न ही उसने मुझे पीछे से पुकारा और अब गायब हो गया , किस तरफ गया? कुछ समझ नहीं आ रहा ,वो वापस उसी स्थान पर आई, तो उसे एक गली दिखी ,शब्बो उस गली के अंदर गयी। वो आज तक उस स्थान पर नहीं आई किन्तु इस ' बल्लू ''के कारण किसी अनजान गली में घुसते ,थोड़ा डर भी लग रहा था किन्तु इस' बल्लू 'के लिए ,वो कुछ भी करने के लिए तैयार थी। तभी उसे एक बड़ी सी तख्ती दिखी- जिस पर गणित की कक्षा का समय लिखा था उसे पढ़कर शब्बो ने अपने माथे पर हाथ मारा और बोली -यही बात दिमाग में नहीं आई ,ये चार बजे यहीं आता होगा।
अब तो वो रोजाना चार बजे ,अपने घर के दरवाज़े पर खड़ी होती और किसी न किसी हरकत से उसे अपने होने का अहसास कराती। एक दिन तो बलविंदर ने कह ही दिया- दिन भर इधर -उधर भटकती रहती है ,कुछ काम -धाम या पढ़ाई नहीं होती।उसके इस तरह कहने से ,वो चिढ़ गयी और बोली -तुझे क्या ?तू ही पढ़कर कलेक्टर बन जा।
कई दिनों तक वो उसके सामने नहीं गयी , चार बजे छुपकर उसे अपनी कक्षा में जाते देखती , ये कैसी बंदिशें हैं ?जो समझ ही नहीं आ रही ,न ही उसने कुछ कहा ,न ही मैंने कुछ कहा। फिर भी नाराजगी है ,उसके प्रति अधिकार की भावना है ,उससे उम्मीदें है- कि वो आये और मना ले ,अपनी बात की गलती मान ,मुझसे दोस्ती करे।ये सब तो मैं चाहती हूँ किन्तु वो क्या चाहता है ?ये भी तो पता चले। ''टोनी ''से भी तो नहीं पूछ सकती ,काश... हमारी पड़ोसन आंटी के एक लड़की होती तो, उससे दोस्ती ही कर लेती। आज तो रहा ही नहीं जा रहा ,दिल तो बड़ी जोरों से धड़क रहा है ये तो जैसे फ़ट जाना चाहता है और इस दिल में जितनी भी सोच और बातें भरी हैं ,उससे कह डालूँ। उसने एक कागज़ लिया ,फ़िर वापस रखा और एक डायरी निकाली और उस पर लिखना आरम्भ किया -
मेरे प्रिय बलविंदर !मन ही मन मुस्कुराई और बोली नहीं बल्लू ! पता नहीं ,क्या लिखुँ ?कहाँ से आरम्भ करूं ? सोचते हुए उसकी कलम रुक गयी। जब से मैंने तुम्हे देखा है ,मुझे तो पता नहीं क्या होता जा रहा है ?उसने वे लाइनें पढ़ीं और काट दीं। पुनः लिखने का प्रयत्न किया। समझ नहीं आता ,क्या इसी को प्यार कहते हैं ?लोग कहते हैं -प्यार में कुछ सूझता नहीं ,न ही कुछ स्मरण रहता है ,मुझे भी कुछ इस तरह ही लग रहा है ,तुम्हारे सिवा ,मुझे अब कुछ स्मरण नहीं रहता। पता नहीं ,मेरी ये ज़िंदगी किस राह पर चल पड़ी है ?अब तो बस एक ही ख़्याल है ,मैं तुम्हारी बनकर रहना चाहती हूँ। पता नहीं .... तुम्हें भी मैं पसंद हूँ कि नहीं। काश... में ये सभी अपने दिल की बातें तुम तक पहुंचा पाती किन्तु ये बातें तो मैं अब अपनी इस डायरी को ही बता सकती हूँ ,इससे मुझे कोई झिझक या डर नहीं। न ही रुसवाई का ड़र है। तुम साथ होते तो कितना अच्छा होता ?तुम्हारे कारण मेरी पढ़ाई भी नहीं हो पा रही ,इसके दोषी भी तुम ही हो। तुम क्यों मेरी छत पर अपनी पतंग ढूढ़ते हुए आये। कभी लगता है -कहीं , मैं रो न दूँ। तुम्हारे प्रेम में जैसे -बोरा गयी हूँ। तुम्हारी तो कोई तस्वीर भी नहीं है। उससे ही शायद मन बहल जाता। कभी -कभी ये सोचकर ही मन दहल जाता है ,तुमने मना कर दिया , तो मेरा क्या होगा ?