आज के दौर में तकनीक ने हर क्षेत्र में अपनी जगह बना ली है और ट्रेन तो बस सुपरफास्ट होती ही जा रही है। ट्रेन में सफर करना बहुत आसान हो जाता है और हमें एक रिजर्व सीट मिल जाती है जिसपर हम सोकर बैठकर अपनी उस जगह पर पहुंच जाते हैं जहां पर भी हम जाना चाहते हैं। AC कोच में बैठकर हम ठंडी हवा लेकर हम अपनी मनपसंद जगह पर पहुंच जाते हैं लेकिन ऐसा कब से हुआ और तब के जमाने में तकनीक भी ज्यादा नहीं प्रोग्रेस की थी तो कैसे एसी का कोच ठंडा रह पाता था। आपको शायद पता हो कि भारत में एसी बोगी वाली ट्रेन 91 साल पहले चली थी। ये ट्रेन आज भी पटरियों पर दौड़ रही है और लोगों को उनकी मंजिलों तक पहुंच पाती है। हालांकि अब इसका नाम बदल गया है लेकिन पुरानी शान आज भी कायम है। चलिए बताते हैं उस दौर में कैसे ठंडा रहता है AC कोच?
91 साल पहले AC कोच इस तरह रहता था ठंडा
1 सितंबर, 1928 को पहली बार चलने वाली देश की एसी बोगी वाली ये ट्रेन जिसका नाम फ्रंटियर मेल (Frontier mail train) थी। इसमें राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने यात्रा की थी. ट्रेन में सबसे अनोखी एसी वाली बोगी थी और बोगी को ठंडा रखने के लिए इसमें बर्फ की सिल्लियां डाली जाती थीं और इस ट्रेन की कहानी भी बहुत रोचक है। फ्रंटियर मेल मुंबई से अफगान बॉर्डर पेशावर तक की लंबी दूरी तय करने वाली होती थी। ये ट्रेन संवस्त्रता आंदोलन की गवाह भी बनी और अंग्रेज अफसरों के अलावा ये आजादी के दीवानों को भी उनकी मंजिल तक पहुंचाती थी। इस ट्रेन की सबसे बड़ी खासियत इसकी एसी बोगी थी जो इस बोगी को शीतल बनाने का काम करती थी और इसके लिए बर्फ की सिल्लियों का प्रयोग किया जाता था। बर्फ की सिल्लियां पिघलने पर अलग-अलग स्टेशनों पर उनका पानी निकालकर फिर से नई बर्फ की सिल्ली लगाई जाती थी। इस बोगी को ठंडा रखने के लिए बर्फ की सिल्लियां रखी जाती थीं और अलग-अलग स्टेशनों पर बदलती थीं। रेलगाड़ी की इस बोगी के नीचे एक बॉक्स लगाया जाता था और इसमें लगा पंखा कोच के सभी कूपों में ठंडक बनाकर रखती थी। साल 1934 में ट्रेनों में एसी लगाए जाने का काम शुरु हुआ था और इस मामले में फ्रंटियर मेल अव्वल रही थी। भारत की पहली एसी डिब्बों वाली रेलगाड़ी होने का गौरव इसे ही मिला था।
फ्रंटियर मेल ने अपना सफर 1 सितंबर, 1928 को मुंबई के बल्लार्ड पियर मोल रेलवे स्टेशन से अफगान बॉर्डर पेशावर तक शुरु थी और इस 1 सितंबर को इस रेलगाड़ी के 91 साल पूरे हो जाएंगे। ये ट्रेन मुंबई से पेशावर तक 2335 किलोमीटर लंबी यात्रा को 72 घंटों में तय कराती थी और इसकी सबसे बड़ी खूबी ये थी कि ये कभी लेट नहीं चलती थी। रेल अधिकारी एसपी सिंह भाटिया ने बताया कि ब्रिटिश शासन के समय एक बार ये ट्रेन 15 मिनट लेट हो गई थी। इस पर उच्च अधिकारियों के नेतृत्व में जांच बैठाई गई थी। साल 1930 में द टाइम्स समाचार पत्र ने ब्रिटिश साम्राज्य के अंदर चलने वाली एक्सप्रेस ट्रेनों में फ्रंटियर मेल को सबसे प्रमुख और मशहूर ट्रेन बताया गया था। आजादी के बाद ये ट्रेन अमृतसर और मुंबई के बीच 1869 किलोमीटर की दूरी कय करने वाली बनी और ये दूरी 32 घंटे में तय की जाती थी। मुंबई से पेशावर तक इस रेलगाड़ी के चलने के कारण ही इसका नाम फ्रंटियर मेल रखा गया था, शुरुआती दिनों में इस रेलगाड़ी में अधिकांशत ब्रिटिश साम्राज्य के अधिकारी ही यात्रा करते थे। लंदन से आने वाले अंग्रेज अधिकारियों के जहाज के साथ ही ट्रेन का टिकट भी जुड़ा होता था और इतना ही नहीं सुविधा के लिए इस रेलगाड़ी को समुद्र के किनारे बने बल्लार्ड पियर मोल रेलवे स्टेशन चलाया जाता था, जिससे वो जहाज से उतरने के बाद इसमें बैठ सकें। स्ट्रीम इंजन और लकड़ियों व लोहे के बने कोचों से शुरु हुआ इस रेलगाड़ी का सफर अब बिजली वाले इंजन और आधुनिक कोचों तक पहुंच गया है।
कई सालों पहले बदल गया था नाम
साल 1996 में फ्रंटियर मेल का नाम बदलकर गोल्डन टेंपल मेल कर दिया गया था। आजादी से पहले ये ट्रेन बंबई, बड़ौदा, रतलाम, मथुरा, दिल्ली, अमृतसर, लाहौर, रावलपिंडी से होते हुए पेशावर जाती थी। इस ट्रेन के मुंबई पहुंचने से पहले स्टेशन की साफ-सफाई के साथ विशेष लाइटें लगती थीं। लाइट्स को देखकर लोग समझ जाते थे कि फ्रंटियर मेल आने वाली है और इतना ही नहीं इस गाड़ी के दिल्ली पहुंचने पर मुंबई के अधिकारियों को टेलीग्राम भेजा जाता था कि रेवगाड़ी सुरक्षित पहुंच गई है।