चलो बाग याद आये तो सही जलियावाला बाग के बाद से अब जुबा पर फिर से बाग निकलने लगे है। पेड़ पौधों के न सही महिला पुरषो के झुंड ही सही खुशबू न सही बेरोजगारी की मांग ही सही। पहले इंसान के बगीचे में फल फूल दिखाई देता था। अब होनहार युवा मासूम बचपन दिखाई देता है। पहले का इंसान (किसान) धूल भरे खेतों में दिखते थे । आज पक्की डामर रोड में दिखने लगे। इंसान(नौकरी व पेशेवर) भारत की राजधानी में बाग... कहत हुए उत्तर प्रदेश में भी बाग लगाने की हवा बह चली है।
ज्ञानी- मास्टर।
अनुभवी- डॉक्टर, ड्राइवर, कमांडर, वकील।
पढ़ालिखा- युवा
पेंशनर- बुजुर्ग
अब सभी बागों के मालिक नही शहरों के बाग बने है। अब तो इन नामों की थोड़ा कद्र घटने लगी है। आंदोलन, धरना प्रदर्शन से अच्छा शब्द बाग मिला है। सच मे इंसानी बाग बन जाए तो नेताओं को फूलो फलों रूपी इंसान के ऊपर अपने राजनीति गद्दे बिछाने को मिल जाए, बेरोजगारी रूपी चाद्दर ओढ़ने को मिल जाएगी।
बस फिर क्या? सुहागरात के फूलों की तरह इंसान को मसल दिया जाएगा।
बाद में अपने लूटे हुए जिस्म के साथ पुलिस और सरकार से गुहार लगाते रहना। एक ताल कदम के साथ जय हिंद...