मान लो सरकार
दुनियाँ का हर दर्द भुलाया बिसराया जा सकता है।
बस अपने दर्द न दे वरना ये दर्द पत्थरों के वार से,
ज्यादा घाव देते है, कोमल जिंदगी को नासूर बना देते है।
इसमें कोई भी मलहम काम नही करता सिवा आपसी प्यार के।
कहने को तो कहते है लोग, जलने से पहले धुँआ उठता जरूर है। लेकिन जब जिंदा लाशें जलती है तो उसमें लपट के सिवा कोई धुँआ नही होता। सिर्फ गोसे की अंगारे वाली राख होती है जो छूने से ही बिखर जाती है।
बहने को तो गंगा बहती है, बहते आँसूओं को किसी ने नही देखा है।
लड़ना झगड़ना तो जंगली जानवरों का काम है। वह नादान और समझ से परे है। किसान जमीन से सबकुछ उगाता है। सरकार उसी से अपनी चमक शिक्षा विकाश की पथ पर चलता है। ज्ञान विज्ञान का विकाश कर सर्वसमाज में अपनी पहचान स्थापित करता है। लेकिन उसकी जड़ किसान ही है। यह बात सरकार को मनाना चाहिए क्योंकि ये जडे ही हमे खड़ा रखती है। उन जड़ो को नही काटना चाहिए। तुम्हे लगता है दीमक मिट्टी खा रही है। लेकिन वह मिट्टी को खाते हुए आपकी जड़ को कमजोर कर देती है। जो आँधी तूफान के आने से पहले हवाओं में ही गिर जाती है। गिरते ही वह बेजान और बेवजह हो जाती। मानता हूँ चीजे देखने मे जितना खूबसूरत होती है। पर उनका अंत हमेसा राख या मिट्टी में मिलने वाला होता है। सरकार किसान का बेटा है लेकिन जब पिता अड़ जाए तो बेटा को झुक जाना चाहिए वरना सुना भी होगा वह अपनी संपत्ति से बे दखल कर देता है।
मालूम सभी को है सहारा पिता का बेटा ही है। सामने से मत टकराव अगल बगल हो जावे तूफान आने के साथ ही लम्बे पेड़ झुक जाते है अपनी साख को बचाने के लिए। नदियां भी अपने दायरे को छोड़कर आगे बढ़ जाती है कुछ पल के लिए फिर अपने बहाव वाले मार्ग में लौट आती है। सरकार को मान लेना चाहिए।