सब सेवक बन गए है।
पेड़ में बैठने वाले पंछी कहाँ जाएंगे? जब पेड़ ही धरा में समा जाए। इस वजह से पेड़ की तुलना प्रवासी मजदूर व प्राइवेट नौकरी से है।
अगर नदी का पानी सूख भी जाए, तब भी नाव नदी में रहेगी पानी न सही रेत काफी है। इस वजह से नदी की तुलना सरकारी नौकरी से है।
पहाड़ो में औषधि है, राजनीति में पैसा है। समतल में रहने वाला किसान सदियों से घाटे में रहा वह आज भी जिंदा है। शहर में बनी कंपनी दो ही महीने में सरकार से कर्जा लेने के लिए हाथ फैलाए है।
देन और दाता दोनों एक सिक्के के पहलू बन गए है। कोरोना संकट काल मे जवान, डॉक्टर के पास दवा न सही जनता हमदर्द ही सही।