वक्त करवट ले गया।
गाँव से भागे, शहर में कमाया मौज मनाया।
गाँव की गलियाँ सूनी, शहर की गलियों में रंगरलियाँ।
गाँव बड़े , घर मन न भए, शहरों में झुग्गी बस्ती बनाए।
जीकर नरक भरी जिंदगी शहर में, गाँवों में नाम कमाए।
छोड़ छाड़ माँ बाप की ममता, शहर में प्यार प्रेम कमाए।
सुबह नहाए कम्पनी को जाए, कर याद गाँव को पछताए।
चढ़ रेल, ले ढ़ेर सामान, गाँव में जाकर दोस्तो को चमकाए।
आई कोरोना महामारी शहरों में हुई उथल-पुथल...
बदला वक़्त जब शहर का, लोगो को गाँव की याद आई।
शहरों की गलियाँ जब डसने लगी, पैदल ही पैर बढ़ाए।
लगा मौत को गले, छोटी-छोटी गाड़ियों से गाँव को पधारे।
गाँव भी बदल चुके थे अब। सारा सामान खेत खलियान मे धरायो।
कर क्वारन्टीन खुद को गाँव के स्कूलो में, जिसने बचपन की याद दिलयों।
अब तो गाँवो में गले लगाने वाले भी, गैरो की नजरों से देखते रहे।
अब शहरों का काम न सही मनरेगा में कमाने जाने लगे।