किसान vs सरकार
किसान मजदूर एक सिक्के के दो पहलू इस जहाँ में बने।
किसान बिन मजदूर अधूरा, मजदूर बिन किसान अधूरा।
किसान का खेत लहराए मजदूर और खुद के पसीने से।
वक्त अब इतना बदल गया, बैल की जगह ट्रैक्टर आ गया।
डेगची बेलचा की जगह, खेत किनारे ट्यूबवेल लग गया।
घर जमीन के बाद, रेल कॉरिडोर के साथ हाईवे भी बन गए।
रेल में समान लाए तो भाड़ा भरे, चले अगर हाईवे में टोल-टैक्स अपनी जेब से भरे।
अपनी हर चीज छिनता देख, किसान सड़क पर आ गया।
माँग अपनी फसल की कीमत, किसान सरकार से अड़ गया।
बात समझने की हो गई, सरकार चंद पैसे देकर ईमान उनका खरीदना चाहा।
बात अब लेन देन की नही, बात मान सम्मान की हो गई।
सब कुछ किसान ने दिया, कपास कागज सोने चांदी के साथ नोट सरकार छापने लगी।
खरीद सरकार पैसे से सब कुछ, अपने आप को शहंशाह समझने लगी।
समझ किसान सरकार की चाल को, अब हक अपना मांगने लगे।
देश चलाने के लिए सरकार और किसान, एक धुरी के दो पहिए थे।
हटा किसान को एक तरफ, सरकार खुद को मसीहा समझ, बहुत बड़ी भूल कर गई।
अभी भी वक्त है भूल को सुधारने की, बे वक्त जान गई किसानों की।
किसान धरा की जान है, सरकार का यह कैसा अभिमान है?
अभी किसान मजदूरों की आय बहुत कम है, नेता, नौकर साहूकारों की आय 250 गुना बढ़ गई।
जिसकी वजह से देश की अर्थव्यवस्था चरमरा गई। सरकार यह समझ न पाई, कानून की आड़ में नया खेल क्यो खेलने लगी?