शहरी जिंदगी।
शहरी आशियाने को, टूट कर बिखरते देखा।
बुलडोज़र को, आशियानों में रौंदते देखा।
चीख पुकार के साथ, आँखों से नीर बहते देखा।
कई दशकों से संजोए सपनो को, उखड़ते देखा।
चन्द कागज़ी टुकड़ो से लोगो को बेदख़ल देखा।
कई जिन्दगानियां, कागज़ी टुकड़ो में दफन हुई।
सब कुछ लूट गया, यह कहते हुए साँसें दफन हुई।
घर से बेघर हुए को, सड़कों में सोते हुए देखा।
शहर से कमाए चन्द रुपयों से, गांवों में घर बनाएंगे।
उन चन्द रुपए के दम पर, शहरी किराएदार बन गए।
वक्त कटता रहा रेल से, गाँव आने जाने में।
बुज़ुर्ग माँ बाप भाई, तड़पता रहा घर के बरोठे में।
सोचा नही था कभी, कोरोना आएगा इस जमाने मे।
निकाल शहर से, सड़कों में पैदल, जाता प्रवासी बना दिया।
रोते बिलखते रेल की पटरियों में, रोटी संग जिंदगी सिमट गई।
पहुँच गाँव मे, शकुन सा मिलता है, जब माँ बाप लिपटते सीने से।