घर हैं, तेरा भी कही?
उठते सागर की लहरों में, दिखती दिखती रही वह|
बहते पसीने की बूंदों में, लिपटकर सूख जाती हैं
वह|
खाए हमने बहुत उसके झोंके,पेट को भूखा रखती वह|
यह
सबसे कहता रहा, इस जहाँ में भूखो मरता रहा|
अपनी जान समझ, जीने के लिए उसके साए में रहा|
करती वह भी गुमान कभी, रुक कर किसी डाल में|
इस जमी में नाम, उसका लिखा का लिखा रह गया|
मानसून का संदेशा दे कर गई वह, अंख मारते हुए|
रिमझिम फुहारों से, भींगी कभी ना वह|
मोड़कर उसकी राहों को, साथ उसके बह चली|
उड़ता माँ की ममता का आँचल, आ मुँख में गिरा|
हिलते-हिलाते सभी को, किधर से किधर को गई|
बनकर सवाल अमीरों के, गरीब के झोपड़ उड़ाते चली|
देख मंजर तेरा, सब लोग कहने लगे,जीने की एक आस
हैं|
तुमसे छुपा न इस धरा में, सब कुछ धरा में, धरा ही रह गया|
होकर विलुप्त तुम कितनों को बेचैन करती हो ...
आसमान, समुंद्र,धरा में घर हैं तेरा भी कहीं?