न छेड़ो प्रकृति को
आज भी हवाए अपने इशारे से बादलो को मोड़ लाती हैं। गर्म सूरज को भी पर्दे की ओट मे लाकर एक ठंडा एहसास जगाती हैं।
रात की ठंड मे छुपता चाँद कोहरे की पर्त मे, उस पर्त को भी ये उड़ा ले जाती हैं। प्रकृति आज भी अपने वजूद और जज़बातो को समझती हैं हर मौसम को।
पर मानव उनसे कर खेलवाड़, अपने लिए ही मुसीबत मोल लेते हैं। किस ब्यथा को लिखू, सभी मे तो मानव ने ऊंगली दे रखी हैं।
नदी मे नाले गिराना, तालाबो को पूर देना, कुओं को सूखाना, पेडों को काट कर सड़क, महल का निर्माड करना, मानव ने क्या बदला? कुछ नहीं सिर्फ मौत का पैगाम भेजा हैं। जो किसी न किसी बीमारी मे दिखता हैं। अभी भी हवाओ को समझो कूलर एसी मे न फसो आने वाले कल को समझो ये हवाए भी तूफान बन सकती हैं, सुनामी पैदा कर सकती हैं।