हुआ वही।
बड़े होने से पहले जो ख्वाब देखा आज भी वही है।
माँ की ममता पापा के पैसे ने बचपन से बड़ा किया।
गुरु की मेहनत स्कूल कालेज की जगह ने ज्ञान दिया।
समाज की ठोकरों परस्थितियों से जीने का सहारा मिला।
दो वक्त की रोटी के लिए ज्ञान परदेशी का हुनर बना।
हुनर से कमाए चंद सिक्के, खुद की परवरिश के लिए।
आँचल तले स्तनों में लिपट कर दूध पीना याद आता है।
पापा की जेब से खनकते पैसे माँगना रोज याद आता है।
दोनों का बिछड़ना, फूलो से भौरों का उड़ जाने जैसा है।
जी चाहता है उन्हें बंद कर लू प्यार की पंखुड़ियों में,
पर मुझे भी खिलना है सामाजिक बाजार में बिकने के लिए।
फूल गूथा गया सुंदरता के लिए, पड़ गया किसी और के गले।
ख़्वाब तो सजाए है अभी भी बुढ़ापे को ज़िंदादिली से जीने लिए।
तन मन धन सब अर्पण किए, एक पल की खुशी के लिए।
वक्त का क्या पता? वायरस के फेर में पड़, मुर्झा जाए।
संभलते-संभालते हुए खुद ना रौंदा जाऊ, भागदौड़ के सफर में।