शहर तेरा, गाँव मेरा
"हम तेरे शहर में आए है मुसाफ़िर की तरह, कल तेरा शहर छोड़ जाएंगे साहिल की तरह, शहरों में सह मिलते है। गुलशन में गुल खिलते है। सारे शहर में आप जैसा कोई नही। दो दीवाने शहर में। सारे शहर के शराबी मेरे पीछे पड़े। सारे शहर में कैसा है बवाल। एक अकेला इस शहर में, मोहम्मद के शहर में, शहर की लड़की,कैसी चली हवा अब के तेरे शहर में। जाने तेरे शहर का क्या इरादा है"
उपरोक्त गानों को सुनकर जितना दिल को सकून मिलता था आज कोरोना की वजह से शहर से दिल उतना ही बेचैन है। सूनी राह में चलने को मजबूर है। गाँव वापसी की गइला उतनी ही जटिल है जितना कि शहर का जीवन। रेल जेल की तरह, बस सत्ता के अधीन, ट्रक व लोडर में मनमर्जी, प्रवासी मजदूररों की कातिल ये काली सड़के।
भूख प्यास से तड़पता यह पेट कोरोना को कोसते हुए बढ़ता जा रहे गाँव की तरफ। शहर हमे नही समझ पाया, हम गाँव को समझ नही पाए, फिर भी गाँव को वापस आए। शहर हमेशा बेगानो की तरह, गाँव लगा अपनों की तरह।