भाषा ने जो कहा।
(साहित्यकार और बनारस के गीतो के राजकुमार नामवर सिंह को समर्पित कविता)
जो खेल सका दुनियाई भाषा से वह खेल बहुत निराला हैं।
किसान का हल, जवान की ताकत, लिखने वाले की कलम, बोलने वाले की आवाज।
जब चारो मिलते हैं देश दुनिया के बागों मे महकते सुंदर फूल खिलते हैं।
दुनियाँ जिससे ऊपर उठती हैं, यह दफ़न उन्ही को करती हैं।
हल-ताकत-कलम-आवाज आज के दौर मे दबने लगे इस जहाँ मे।
आसमान मे उड़ान भरते पंक्षियों के पंखों को नेता कुतरने लगे।
मशीनों ने अब सबकुछ छीन लिया शंख नाद भी मशीने देने लगी।
पर्वतो की ओर से बहने वाले झरने-नदियाँ सूखने से लगे।
बेमौसम की बारिशों से लहलहाते खेतो मे ओले झरने लगे।
आतंकी बारूदों के प्रहार से बॉर्डर मे जवान राख से झरने लगे।
थी सबकी अपनी पहचान यह भी खिचड़ी की तरह नेताओं के पतीले मे पकने लगे।
खाँ ले जिसको खाना हैं एक दिन यह भी नहीं मिलेगी, यह पाँच तत्वों मे खों जाएगी।
जानू ने सच को जाना हैं, यह साहित्यकार के लिए सजाकर लिखने का अफ़साना है।