सच कहाँ हैं?
कब्रिस्तान
मे राख़ नहीं मिलती, मिट्टी-मिट्टी मे दफन हो जाती हैं लाशे।
समशान मे हैं
राख़,एक चिंगारी से
आग लगकर शांत हो जाती चिताए।
लौट जाते हैं
वह लोग, ख्वाबों
के समुंदर मे भ्रमित गोते लगाते हुए।
दफन हो जाना, भसम हो जाना,ताबबूतों मे सिमट कर रह जाना अंत हैं।
यह सारा दृश्य, आंखो की पालको को भिंगोते हुए
आँसूओं मे बह जाता हैं।
करुणा को संभालना, करुणा मे बह जाना इस जहाँ के
इंसान को आता हैं।
लाशों के सामने
आँसू न सही सर तो जानवर भी झुका कर ठहर जाता हैं।
हवा मे पंक्षी
भी उड़ान भरते हैं, सरहदों को पार करने के लिए।
वह भी लौट
आते हैं सरहदों से अपनी सर जमी मे, मौसामों की तरह।
उड़ना, फुदकना नीले आसमान मे ऊंचे-ऊंचे
गोते लगाना उनकी पहचान हैं।
न उनकी लाशे दफन होती हैं, न चिताए जलती हैं समशानो मे इंसानों की तरह।