आशियाना नहीं धोखा हैं.
डीडीए फ्लैट, यह नाम अपने आप मे बहुत बड़ा हैं दिल्ली शहर के लिए यह लाईन उस औरत के
ज़ुबान से सुना जिसने पहली बार सावदा घेवरा के फ्लैटों मे अपने कदमो को रखा था
जिसके पापा ने 1985 मे एक घर होने की चाहत को सजाया था। वह सफदर जंग कालोनी से आए
थे उनके पास अपनी कार थी उसमे पाँच लोग सवार थे। वह औरत जिसके आंखों मे चश्मा
कुर्ती नीली, सलवार सफ़ेद हाथो मे एक पैसा रखने वाला पर्स
जिसे अक्सर महिला हाथ मे लिए मिल जाती हैं। उनके पापा की उम्र 60 से 62 के बीच
अपने मटमैले पाजामा की जेब से एक लेटर निकाल कर साथ मे आए नौजवान को वह पत्र पकड़ा
दिया जिसे वह लेकर गेट के पास बने चेम्बर मे गए जहां पर पहले से गार्ड बैठे थे।
वह गार्ड हर आने वाले के लिए गेट को खोलते और उनसे अपने एक
रजिस्टर मे इंट्री करवाते जिसमे नाम, आने का टाईम, वह पर्ची नंबर,
मुबाईल नंबर, हस्ताक्षर, आदि कालम थे
जिसमे वह इंट्री करके अंदर दाखिल हो जाते और फ्लैट का मुआइना करते हुए अपने परिवार
के साथ एक सेलफ़ी ली। जब वह बाहर आए तो कहने लगे की सरकार ने भी क्या गेम खेला हैं? हम लोगो से 3000 हजार रुपये 1985 मे जमा कराए थे तब उस वक्त फ्लैट 30 से
40 हजार मे थे और आज इनकी कीमत 12 से 13 लाख कर दिया हैं। गरीब आदमी कैसे खरीदेगा?
उनके जाने के बाद एक बुजुर्ग जोड़ा फिर आया उन्होने भी वही
प्रक्रिया मे भाग लेते हुए अंदर दाखिल होकर सब कुछ देखा सुना समझा वह सेलफ़ी नहीं
ले पाए मुबाईल के अभाव मे वह बाहर आए और कहने लगे कमरे बनाया हैं या मजाक किया
हैं। लेकिन बेघर से तो घर अच्छा हैं लेकिन बेटा एक बात बताओ यहाँ समशान घाट नहीं
है क्या? बेटे
ने कहा नहीं वह तो इसमे नहीं लेकिन वहाँ दूर नहर के किनारे हैं वहाँ पर खड़े लोग
हसे लेकिन उनके बात को समझा भी उनकी उम्र को समझते हुए यह सवाल थोड़ा सबसे हटके था।
अंदर से एक जोड़ा और निकला जिन्होने ने कहा की काफी अच्छा बनाया हैं खुला-खुला सा हैं। बगल मे मैट्रो स्टेशन हैं, बस हैं, ईरिक्शा भी हैं, ग्रामीण मुद्रिका भी हैं, हरा भरा हैं। तभी एक लड़के ने कहा इनमे ईट को नहीं लगाया गया हैं उसकी इस बात को सुनकर वह अचंभे से बोले सही इसका मतलब यह मजबूत नहीं हैं। लड़के ने कहा नहीं मजबूत तो बहुत हैं। एक अगले बुजुर्ग अपनी कपकापती उँगलियो मे फसे बेत को हथेली मे टिकाते हुए फ्लैट के बाहर आकर कहने लगे इस जमाने को क्या हो गया हैं? किससे कहे क्या कहे? हमारी उम्र किराए के घर मे गुजर गई कि कल अपना घर होगा।इस आस मे कि हमे सरकार घर देने वाली हैं आज ज़िंदगी के इस आखिरी पड़ाव मे 12 से 13 लाख रुपये कमाना बहुत बड़ी बात हैं। अगर बात 1985 मे पता होती तो अब तक किस्त मे अदा करके घर अपना होता और सरकार एहसान भी न होता। अब तो बस एक लाइन जहन मे उठती हैं शहर मे जीतने लोग झुग्गी-झोपड़ी या फुटपाथ मे सोते हैं उससे ज्यादा कही बने बनाए फ्लैट खाली हैं। जिसमे कई सालो भूतो का बसेरा हैं। इंसान गलियो रेलवे किनारे बसे पड़े हैं। मुझे तो कभी-कभी लगता हैं न जनता सुधरेगी न सरकार जनता गरीबी का चोला ओढ़े रहेगी और सरकार उस चोले को फाड़-नोचकर नंगा करती रहेगी अपनी झोली को वोटों से भरती रहेगी सरकार आईने के तौर मे ऊँचे ख्वाब, हाइस्पीड ट्रेन, ऊँची खाली फलैट दिखाकर चूसती रहेगी जैसे हम चुसकर इस हालत मे पहुंचे हैं। यह उनकी आखरी लाईन थी वह ईरिक्शा मे बैठ कर चले गए उस जगह मे उनके कदमो व जाते हुए रिक्शे के पहिये के निशान रह गये उनकी हर कही हुई बात सच-सच कहकर कानो की गूँज बनी रही।