बावरापन नहीं अकेलापन
बहुत कुछ आ जाने से बावरा होना लाज़मी हो जाता हैं।
मानव के इस बावरेपन को एक पेड़ के जरिये सीचते हैं।
मिट्टी मे जड़े धसा दिया, जमीन से सबकुछ ले लिया।
आसमान को इस आश से निहारता रहा एक बूंद पनी के लिए।
खुद को इतना हरा किया नई कोपलों के साथ कली फूल से फल बनाया।
फूल-फल दोनों चले गए शहर की बाजार मे, पतझड़ ने पत्ते भी छीन लिया।
क्या कसूर था पेड़ का, वह अकेला यही सोचता रहा, मर गए सब मेरे लिए।
अब नहीं जीऊँगा यह जिंदगी, सब मतलब के साथी हैं।
वक्त पलटा बसंत आ गया, अकेलापन भी डस रहा था फिर से उसी मोह, मे फस गया।