तन्हाई मित्र हैं.
झरने की झर्झर,
नदियों की ऊफान, पहाड़ की चोटी पर झाड़ मे खिले नन्हें
कोमल-कोमल फूल जो हवाओं से बाते करते। वादियो, घाटियों, समतल मैदानों मे भटकता एक चरवाहा तरह-तरह की आवाज को निकाल अपने आप को
रमाए रखता। कभी ऐसे गाता जैसे उसे कुछ याद आया हो। उस याद मे एक कशिश की आवाज। वह
इन समतल वादियों मे अपने जानवरों के साथ सोंधी-सोंधी मुलायम मिट्टी मे अपने नुकीले
चमड़े की जूती की नोक से मिट्टी को मसल रहा हो।
एक बचपन जो अपनों से बेखबर अपनी छोटी-छोटी
चार बकरियों के साथ। जंगल मे बहता एक गहरा नाला जो काफी दूर जाकर एक गहरे तालाब मे
खो जाता। नाले को चीरती हुई गाँव की तरफ जाती सड़क जो शहर से होकर आ रही थी। सड़क
जिस जगह नाले को चीरती थी। उस जगह एक सीमेंट से बना गोल बेलना कार ढोला जिसके ऊपर
से सड़क रगड़ कर चढ़ कर निकलती। ढोला सड़क को भी निकलने देता और नाले के बहाव के पानी
को भी।
चैत माह की खूंखार दोपहर को पैदा करने
वाला सूरज, अपनी जवानी की गर्मी से नाले के साथ बड़े से तालाब को सूखाकर रख
दिया। सोंधी-सोंधी मुलायम मिट्टी को भी इस तरह से चटका दिया जिस तरह खेत मे काम
करने वाले किसान की एड़ी मे फटी हुई बिवाई, जिसमे एक
मीठा-मीठा दर्द। नाले के बगल मे बिखरी रेहू को हवा मे उड़ाती ऊसरी जमीन। ऊसरी जमीन
मे उगी झाड़ी, कटीली डालियों मे ऊगी छोटी पत्तियों को खाती बकरी।
गोल बेलनाकार ढोले के अन्दर बैठा दोस्त से
बाते करता। बाहर उमस वाली गर्मी की चुभन, ऊपरी हिस्से से आती जाती गाड़ियों की धमक।
जितनी बार धमक लगती बचपन उतना करीब चला जाता अपने दोस्त के पास। घर वालो ने भी उसे
हर रिश्तो से दूर कर दिया था। पेट भी भूखा था। होठ भी पानी की तासीर मांग रहे थे।
उस वक्त को छोड़ना नहीं चाहता था। गरम हवा कही न कही से आकर पसीने से भींगे अंग को
ठंडक देती। किसी के लिए वह सताने वाली हवा थी। किसी को खुश करने वाला एक छोटा सा
झोका।
उसकी आंखो मे नींद का एहसास पनप रहा था। उसके
लाख कहने के बावजूद भी वह उसमे हावी होती जा रही थी। उसको समझाता, इस पल
को साथ जी ले। उसे किसी भी कीमत पर दूर जाने नहीं देना चाहता था। नजर उन पर गई जो
बारीक पतली झाड़ी नुमा पत्तियाँ को चबाने मे लगी थी। अब तक इतना उसको समझा दिया। दोपहर
मे कही जाने वाला नहीं। इस वक्त आपके साथ एक गहरी नींद लेना चाहता हूँ। वो मान गई
थी इस बात को।
सिर अब ढोले के एक कोने को छूने लगा था।
पैर लंबे होकर स्थिर हो चुके थे, एक हाथ की हथेली गाल से सटी पड़ी थी। मुँह
से गाढ़ी लार निकल कर लबो को चूमने लगी थी। यह कहाँ तक जाती इसका अंदाजा बिलकुल भी
नहीं था? करवट लेने का वक्त आ गया था। इस वक्त वो हर उस अंग
को छूना चाहती थी, जिसको कभी छूने की इजाज़त नही। आंखो मे
आसूं छलक आए थे। अपनों ने जख्म तो नहीं नसीयत दे दी थी,
जिसकी वजह से उसको अपनाया था।
वह भी हर तरह से दिल का इम्तिहान लेने लगी
थी। वह हर उस दर्द को कुरेदती जिसे कभी न बताने की कसम खाई थी। निजी जिंदगी मे
हस्तक्षेप करने वाला कोई एक होता हैं। जो आपके शरीर को गुदगुदाने के लिए अपनी
पतली-पतली उंगली को कही न कही स्पर्श करता। आंखो मे छलके आसूं को अपनी पलकों मे समेट
लिया था। वक्त काफी हो चला था। सूरज सिर से पीछे जाने लगा था। पहर पलट गया था।
गाँव के किनारे बना पंचायत घर। वह नाम का पंचायत
घर उसमे तो स्कूल खुला हुआ था। गाँव के बच्चे ही पढ़ने आते थे। सामने गाँव के
किसानो के खलियान, जो किसी न किसी फसल की वजह से मिट्टी व गोबर से खलियान
लिपे-पोते होते। उनसे दस कदम की दूरी पर हर घर के गोबर को पाथने की जगह जिसमे सबकी
अपनी एक भठिया( जिसमे गोबर के सूखे कंडे को एक साथ जमा करके उनको सजा कर खड़ा कर
देते ) बाहर से भटियां मे गोबर का लेप लगा कर उसको सुरक्षित कर दिया जाता। जब होली
का महिना आता तो उनको उधेड़ कर घर ढो ले जाते।
सुबह से ही किसान खलियान मे अपने अरहरी के
बोझों को धूप मे सूखाने के लिए उन्हे इस तरह रखते की उनके रखने से उन बोझों के बीच
एक खाली जगह रह जाय। जिसमे सब के खेलने छुपने की जगह बन जाती जिसमे सब छुपन छुपाई
खेलते। या सब परिवर्तन फसल के हिसाब से हो जाता। सब के खेलने के तरीके वैसे ही बदल
जाते। आज भी घर से रूठ कर आया था अपने दोस्तो के साथ खेलने के लिए।
खेल मे हिस्सा तो ले लेता, छुपन
छुपाई के खेल में, खलियान की तरफ भागता हुआ अरहर के बोझों के
बीच बनी जगह में अपनी दोस्त के साथ छुप कर बैठ जाता। सारे दोस्त इधर से उधर भटकते
खोजते हुए वो सब भी खलियान की तरफ ही आते। पर उन सब से बेखबर होकर उससे से ही बाते
करते। तुम ही हो जो मुझे देख रही हो किसी मे इतनी हिम्मत नहीं कि हमे देख सके? उसने इस बात को सुनकर कहने लगी मै नही देखूँगी तो तुम्हें कौन देखेगा? कितना करीब रहती हूँ। मैंने तूझे अपना बनाया हैं तुम मुझे किसी भी कीमत
मे अपने से अलग नहीं कर सकते।
उसकी इस तरह की बेहूदी बातों का कोई असर
नहीं। दोस्त बाहर कहते खोजो यार कहा गया पता नही कहा छिप जाता हैं? डरता
भी नहीं ये तो वो सब सोचते थे। वह तो उससे से ही मजे लता था। वह बहुत बन ठन कर उसके
पास आती थी। आज वह कहने लगी जब आपके पास आ जाती हूँ। फिर भी तुम दूसरे के बारे मे
क्यों सोचते हो? नहीं ये तुम गलत सोच रही हो। तुम ही तो मेरे
अकेलेपन से खेलती हो।
दीवार के पीछे अकेला बैठा था। किसी ने आज
भी कोसा था कि तेरे पास बहन नहीं हैं देख मेरे पास कितनी बहने हैं? यह सब
वो अपनी कलाई में पड़ी रखियों को दिखा कर कहा था। उसकी बात एक नुकीली तीर की तरह मन
मे कसक रही थी। उस कसक की वजह से आंखो मे आसूँ छलक आए थे। उन आसूँओ को भी वो पोछने
आ गई न जाने कैसे वह अकेला देख लेती थी? नहीं तुम कैसे मेरे
राखी बांधोगी? चलो रहने दो। स्कूल की टन-टन घंटी बज चुकी थी, एक शोर था। चलो खाना खाने।
यह पहला स्कूल था जिसमे सब स्कूल की आधी
छुट्टी मे घर खाना खाने जाते थे। पूरे चालीस मिनट का लांच होता था। अध्यापक भी पीछे
अपने घरो को जाते खाना खाते और पहले आ जाते सब तो खाना खाने के बाद किसानो के
खलियानों मे उधम मचाते जैसे ही स्कूल की टन-टन सुनाई पड़ती हाफ्ते भागते अपनी-अपनी
कक्षाओं मे पहुँच जाते। पढ़ाई शुरू हो जाती। यह अब रोजाना की जिंदगी मे शामिल हो गया
था।
उसकी भी उम्र मे इजाफा हो रहा था। वो हम
उम्र थी। एक वाक्या याद हैं उस दिन को भूला नही सकता जिस दिन उसने उसका साथ दिया था।
छोटा भाई बहुत बीमार था। पापा परदेस मे कमाई के लिए चले जाया करते थे। माँ घर के
सारे कामो को संभालती, दोनों भाई पढ़ाई करते। छुटपुट कामो मे माँ
का हाथ बटाया करते। माँ उसे भैस को दुहना सिखाया करती कि कभी कही चली जाऊ तो कम से
कम दूध तो निकाल लिया करेगा।
भाई ज्यदा बीमार पड़ता चला गया। अब उसकी
बिलोरी आंखे अंदर की तरफ धस गई थी सीने की सारी पसलियाँ गिनने लायक बन गई थी। माँ
से अब देखा नही जा रहा था। दोपहर का वक्त था। भाई को लेकर माँ एक मन्दिर गई थी।
शीतला माँ के मन्दिर, किसी ने कहा था कि पंडा जी भभूत देते हैं। भभूत से लोग सही हो
जाते हैं। वह जगह शहर से बहुत दूर थी। उनका वापस आना बहुत मुश्किल था। शाम अंधेरे
की तरफ बढ्ने लगी थी।
शाम होते ही हर काम को वैसे ही निपटाया
जैसे माँ निपटाया करती। बस एक ही काम भारी था भैस का। उसको चारा लगाना ठंडे पानी
से नहलाना और एक बड़ा काम उसका दूध निकालना। वह हिम्मत नहीं हारा सब कुछ किया। अन्त
मे भैस के पास रोजाना दूध दोहने वाली बाल्टी को लेकर गया दूध निकालने के लिए। भैस
भी उसे जानती थी माँ के पास कभी-कभी बैठा करता था। वो समझ नहीं पाई उसके चारो
आचरों से बारी- बारी दूध निकाला जब भी वह उसकी तरफ देखती। उसके आचर से निकलते दूध
की धार उसके मुँह मे मार देता वह अपने मुँह को धूमा कर हरा चारा खाने लगती। माँ
अभी तक नहीं आई थी। सारे घर मे ताला लगा कर अपनी छत पर चला गया था। ऊपर आसमान
बिलकुल नीला, तारो की छिटकन मे चाँद निराला ही दिख रहा था। चाँद के अंदर एक
बूढ़ी अपनी चारपाई मे फैले चने सीमेट रही थी। घर के चारो तरफ सन्नाटा था। अरहरी के
बड़े-बड़े पेड़ों मे खिले पीले-पीले फूल चाँद की रोशनी मे साफ चमक रहे थे।
भैस के गले मे बंधी घण्टी उसके चारा खाने
के हिसाब से बज रही थी। दूर से कही कुत्तों की आवाज आ रही थी। वह कब तक निहारता
नीले आसमान को? शरीर बिलकुल सीधा चारपाई मे, आंखे झपकी
लेने वाली थी, वह फिर से छत पर आ गई उसको देख कर तो उसके जान
मे जान आ गई। पहली बार उसने झटके से उसे अपनी गोद मे सीमेटा था। फिसल गई गोद से और
कहने लगी तुम बहुत मतलबी हो। तुमने क्यो नहीं बताया कि माँ आज घर मे नहीं हैं।
क्या मै आपकी मदद न करती?
चलो अच्छा अब गुस्सा छोड़ो, पहले
आओं, मेरे साथ बैठो, ये तो बताओ तुम
देर रात अकेले कैसे आई हो? कोई तुम्हें देख लेता तो, मुझे कौन देख सकता हैं तुम्हारे सिवा? अब उससे कोई
भी सवाल करने की जरूरत न थी। वरना सारी रात उससे वह सवाल ही पूछता रहता और वह इधर-
से उधर घुमाती रहती। उसने कहा चल छोड़ो इधर-उधर की बाते तू भी लेट जा बगल मे। वह तो
यह चाहती ही थी।
साथ लेट कर उसने अपनी आखे आंखो मे गड़ा दी
और पूछने लगी भाई के बारे में कि वह कैसे बीमार पड़ा? माँ तो बहुत परेशान हुई
होंगी। पापा को बताया या नहीं। बस वो परिवार को सोचने के लिए मजबूर कर रही थी।
अपने बारे मे एक भी सवाल नही पूछने दे रही थी। जब भी पूछने की कोशिश करता वह मुँह
को अपने मुलायम हाथो से अपनी तरफ खीच लेती। उसकी इन हरकतो से ऊब वह आया था।
उसको जैसे ही अपनी तरफ खीचने की कोशिश की
वह छत मे भागने लगी उसको पकड़ने लगा। उधर भैस के गले मे बंधी घण्टी की आवाज कानो मे
पड़ी। उसके हरा चारा खाने की वजह से बज रही थी। वह फिर से चारपाई मे लेट गया। दोनों
मे बाते करते, सोचते सो गए। उसने कसके जकड़ रखा था सुबह मुर्गे की बाँग देने
तक।