अपने पैरों खड़ी।
समझ स्कूल,कालेज, शैक्षिक संस्थानों की पढ़ाई।
घर, गाँव गली में पढ़-लिखकर शहर में हुई बड़ी।
कर विश्वास अपने से, हो गई अपने पैरों खड़ी।
भागदौड़ कर भीड़ में, पकड़ती हूँ शहर की रेल।
शहर से कमा कर वापस आना, नही है कोई खेल।
हँसती मुस्कराती ऑफिसों में, दिनों को गुजारती।
आ घर, गिर बिस्तर में, दिन की थकी उतरती।
छोड़ चूल्हा चौक घर का काम, किचन को निहारती।
सुन काम की आवाज़ माँ के मुँह से, मुँह को सिकोड़ती।
त्याग सारी रस्मों रिवाजो को, जीवनसाथी खोजती।
चीख़-चीख़ माँ कहने लगी, हो गई तू पराई।
है यह उम्र बड़ी नादान, इसे समझ न कोई पाया।
छोड़ बबूल के घर आँगन को, क्यों तू पछताई?
अब क्यों ख़िलते गालो में, आँखों से नीर गिराई (बहाई)?
नहीं अब कोई सहारा, हो गई अपने पैरों खड़ी।