गुम हो रहा है।
घर की मुंडेर में रखे छप्पर और परछती ओरौती बनकर अब चूती नही।
गाँव के बड़े बगीचों में आम, निमोरी, जामुन, महुआ, सबका चूना बंद सा हैं।
दो बैलो की जोड़ी, कुसी, हल धोती वाले किसानों के झुंड नही।
गाँवो के चारो ओर फैले तालाब, कुआँ, नहरें अब लोगों ने पूर लिया।
कोसों दूर पैदल जाने वाली बाजारे अब मॉल बन छोटी सी जगह में सिमट गई।
शाम सुबह चूल्हों से उड़ने वाला धुआँ अब उठता नही।
गाँव मे पोक-पाक... कर शाम को चलने वाली चक्कियाँ गुम सी गई है।
घूंघट में निकलने वाली बहू, सलवार के पायचे को सम्भालती बेटियां दिखती नही।
शाम को लौटने वाले चरवाहे, गोधूल में अब दिखतें नही।
वह धूल भरे गलियारों में, कदमों के निशान उभरते नही।
शादियों में रोशनी भरे होंडा (पेट्रोमैक्स) थूनी में लटकते नही।
एक दिन पक्का दो दिन कच्चा खाने वाली बराते अब ठहरती नही।
अपनो को अपनो से मिलने की फुर्सत नही प्रवासी मजदूरों में जो बदल गए।
लोगो की रामराम दुआ शलाम अब बहुत मुश्किल से हो पाती है।
गाँव वाले स्टेशनों में अब दूध, फूल, सब्जी, ढोने वाली पैसेंजर आती नही।
ऐसा भी नही की गाँव मे कुछ रह नही गया सब कुछ है, पर गुम-गुम सा है।