दफ्तर के चक्कर
यहाँ भटकती वहाँ भटकती जहां को कहते वही भटकती।
लिए हाथ मे एक रंगीन थैला, भरा जो दस्तावेज़ो से।
इस दफ्तर से उस दफ्तर तक, बाबूजी–बाबूजी कहती।
पलट थैले को मेज़ पर, एक नही ढेर दस्तावेज़ पढ़ाती।
बाबूजी कहते इतने दस्तावेजों से काम नही चलेंगा।
राशन कार्ड, पहचानपत्र के अलावा बिजली का बिल लगाओ।
नही चलेगा पुराना राशन कार्ड, नया राशन कार्ड बनावाओ।
हो निराश इस राशन कार्ड से, चली दफ्तर फार्म को लेने।
लगी हजारों के भीड़ मे, तब कही जाकर नम्बर आया।
ले फॉर्म हाथ में यहाँ गयी-वहाँ गयी भरवाने के खातिर।
गली घरो मे ढूंढा एक पढ़ालिखा, जिससे फॉर्म भरवाया।
अगले दिन फिर पहुँच दफ्तर, मे दरवाजे को खटकाया।
लाईन में घंटो कर कड़ी मस्कत पहुँची बाबूजी के पास।
मिला वही बाबू ऐनक वाला जिससे फॉर्म को ले कर आयी थी।
अगली सुबह ले मेरे हाथ से फॉर्म, ऐनक लगा गौर से देखा।
हुई तर-बतर पसीने से, फिर अंदर से आवाज आई बाबू की।
आपने राशन कार्ड के साथ, दूसरे का बिजली बिल क्यो लगाया?
सुनकर बाबूजी की बात, सिर मेरा गर्मी से चकराया।
पीछे वाली बहना बोली चल हट पीछे, अब मेरा नम्बर आया।