एक साथ खाने का वक्त कहां?
आधुनिकता के दौर में वास्तविकता गायब होती जा रही है। कमआमदनी में जीने वाले लोग अपना ज्यादा समय जुगड़ में ही निकाल देते है। न ही जुगाड काम आता है और न ही वह आधुनिकता का भरपूर भोग कर पाते है। वह भी ताश की गड्डी से जोकर की तरह निकाल कर, उसी खोल में रख दिए जाते है। बाकी के ताश पीसे और बाटे जाते है, खेले जाते है। एक खेल नही कई खेलो के नाम से जाने जाते है। जोकर स्थिर अवस्था में वही बने रहते है। देखते सुनते रहते है खेल के दाव और पेच को। हाथो की छुवन और खेल से नजर अंदाज कर दिए जाते है। वह गड़ना में जिंदा रहते है। की बावन पत्तो में उनका भी नाम दर्ज है।
नाम हमारा भी दर्ज होता है। ये हासियाई लोग है। कामगार लोग है। दिनभर का कमाना जिससे शाम का खाना बनता है। जीते हम भी है। सरकारी राशन की भेट से, मालिक की किचन से बचे बासी भोजन से। काम की जगहें हमे सपने दिखाती है उड़ान देती है। जीने का नाम देती है। दिनभर की थकान मुंह उठाए नशे में लिप्त हो जाती है। वह थकान जिसे शाम के वक्त परिवार के साथ खाने में होना चाहिए। वह काम की देरी, दूरी, मालिक की डॉट शराब खाने की तरफ ले जाती है। काम से मिले कम पैसे वही खर्च हो जाते है। महीने की मजदूरी भी कट के मिलेगी। जिससे हिसाब गड़बड़ा जाता है।
बच्चे, बीबी, भाई, माई, बाप, बेटी सब का बोझ लिए कमजोर हाथों में एक थैला जिसमे फटी पुरानी काम की वर्दी जो हफ्तों से नही धुली है। बदन के कपड़े में पड़ी सिलवट घर की स्त्री की दिनचर्या को मुंह चिढ़ाती है। वह भी किसी की मजदूरी या खाने के जुगाड में निकली होगी। बच्चे अधभूखे स्कूल में पलटती किताबों में मिड डे मिल वाले खाने के लिए अपने साथ लाए खाली डिब्बा को हिलाकर अपने पेट के वजन को भाप रहे होंगे। माई बाप घर की चौखट में बैठ कर शाम के बचे बासी खाने को पानी की ताकत से निवाले को गले के नीचे उतार रहे होंगे।
आस और इंतजार में शाम का सूरज ढले रसोई में कुछ पके, बहू के आने की आहट। पोती पीते की कुपोषित काया बाप की कमाई की दुहाई मांगती हुई। बाजारू कमजोर बर्तन किचन में खनक रहे होंगे। सरकारी चावल मोटे मोटे पानी में खौल रहे होंगे। खेत की ताजी पतली गाजर आलू मटर छाट कर मां लाई होगी उसी की सब्जी बन रही होगी। बच्चे थाली कटोरी बजाते हुए मां के मुंह को निहारते हुए कच्ची गाजर खा रहे होंगे।
अकसर हमारी थालियां और प्लेट हल्की होती है, खाना भी हल्का होता है। अपनी प्लेट धोने में और मालिको की प्लेट धोने से वजन का एहसास होता है। उसमे बचे जूठन से साफ दिख जाता है। अगर यही जूठन शाम को खाने के रूप में मिल जाता तो हमारी हल्की थाली का वजन भारी हो जाता। यह बात जुबान में आती तो है कि मालकिन से कहूं, पर डर होता है अपनी पगार का।
बड़ी किस्मत से काफी मांगी मन्नत मुरादो से महीने में एक दो बार ही हम सब शाम का खाना एक साथ खा पाते है। वह भी जब काम से मन मार लेते है। बाकी के दिन बच्चे बाप के आने से पहले कम्बल या चद्दर में लिपटे पड़े होते है किराए के कमरे में या सरकार के द्वारा दी गई बारह से अठराह मीटर के कमरे या झोपड़ी में। वह झोपड़ी भी स्वर्ग लगती है उस मदूर को जो शाम को हरा थका आकर उसमे अपनी कमर को सीधा करता है। अपने दिनभर के खोए प्यार को पाता है। हल्की थाली में परोसे गए खाने को अपनी बीबी के साथ खाता है। जिसमे कई बार बच्चों का जूठन वाला खाना भी होता है। दाल पतली, सब्जी में पानी की तरी तैर रही होती है। चार रोटी के साथ राशन वाला मोटा चावल अपनी व्यथा आंखों के सामने कह रहा होता है। उसमे भी सामने बैठी बीबी की मुस्कान कल को जीने की जिद दे जाती है।