काया
बचपन, घुटवन चलय।
चलए सीना तान, जवानी।
झुक जाए, बुढ़ापा जात।
ये सब, सुख दुःख के साथी।
यह सब मन ह्रदय बसे।
जानू, ये उमरियां बीती जाय...
15 अप्रैल 2024
काया
बचपन, घुटवन चलय।
चलए सीना तान, जवानी।
झुक जाए, बुढ़ापा जात।
ये सब, सुख दुःख के साथी।
यह सब मन ह्रदय बसे।
जानू, ये उमरियां बीती जाय...
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मै जानू नागर लिखने की कोशिश करता हूँ। कई बुकों व पत्रिकाओ मे लिखा हैं। मै लिखता इस वजह से हूँ कि आम जनता की आवाज के साथ अपनी अभिब्यक्ति को उन्ही के बीच लिखित मे रख सकू। D
धनहर और मनहरधनहर मनहर दोनो साथी और संघाती है।गंगा में धनहर नाव तो मनहर पतवार है।बीज बोता धनहर खेत मे, ध्यान मनहर देता है।ट्यूबवेल धनहर का बरहा होता मनहर का।फसल बड़ी हुई धनहर की काटता मनहर है।धनहर फसल लाया शहर में मनहर गांव में।धनहर की झोली भरी मनहर की जेब ऊँची हो गई।धनहर की कोठी हवेली, मनहर की झोपड़ी
<p>मानव काया।<br> <br> दुःख दरिया की तरह, सुख ओस की तरह। <br> <br> दर्द दिल सहता रहा, मन बावरे की तर
जानू की बाते।कोरोना कोरोना सब कोई कहे, भूखा कहे न कोई।एक बार मन भूखा कहे, सौ दो सौ की भीड़ होए।मोदी अंदर सबको रखे, घर से बाहर न निकले कोई।मन की बात मोदी करे, सो बाहर उसकी चर्चा होए।मम्मी एफबी में लिपटी रहे, बेटा-बेटी बैठे टीवी संग।साथी शिकायत करने लगे,पापा नौकरी से आए तंग।एक बार सिंग्नल मिले, भीड़ स्ट
कैश के जाते ही ऐश बंद हो गई हैं ।टोल फ्री रोड हो गए ।अब बियर बारों की भीड़ बैंक मे चली गई।मजदूरो का पी.एफ, मालिको ने जमा करा दिया।पत्नियों ने मुश्किल वक्त मे खर्चा करने वाले पैसो को, मिया जी को पकड़ा दिया।सड़कों मे लोग कम, पैसा ज्यादा घूम रहा हैं। जुए सट्टे अब सब बंद पड़े हैं।महंगी गाडियाँ, दिल्ली की सड़
किससे लड़ोगे।लॉकडाऊन को हटा दो, कोरोना को भगा दो।हम सब काम करने वाले है, कोई कायर नही। नेताओं को समझा दो, ये चुनाव का वक्त नही।लोकल और वोकल को, पूरे देश मे फैला दो। जहाज को उड़ा दो, रेल बस को भी चला दो।मॉल दुकानों के साथ, बॉर्डर भी खोलवा दो।जनता मरती है तो, उसको व भी मारने दो।अंत के लिए, शमशान व कब्रि
छीटा से मुट्टी-मुठ्ठी भर दाना जोते खेत मे फेको दाना खड़ा गिरे, तिरक्षा गिरे, पेड़ सीधा ही खड़ा होगा। यह खेत की भुरभुरी मिट्टी की ताकत। फिर यह मानव जीवन मे टेड़ा पन कहाँ से पनपता जा रहा है। सबकुछ है तो मानव की मुठ्ठी से। फिर मानव एक दूसरे को नीचा दिखाने में क्यो अड़ता जा रहा है। अपने, अपने को ही नही समझ
अजीब मसला है जिंदगी का।लोग कहने लगे है, रही जिंदगी, तो दुनियाँ जहां को समझ लेंगे।लहरे भी अनगिनत होंगी कोरोना की अभी, तीसरी का इंतजार है।पहली लहर से घबराए भागे, मौत से बचने के लिए योंही जिंदगियां गवा दिए रोड, रेल ट्रैक पर।दीन दानवीरों की टोलियां मद्दत किया उनकी जो प्रवासी मजदूर बन गए थे।अजीब मसला है
अपने पैरों खड़ी।समझ स्कूल,कालेज, शैक्षिक संस्थानों की पढ़ाई।घर, गाँव गली में पढ़-लिखकर शहर में हुई बड़ी।कर विश्वास अपने से, हो गई अपने पैरों खड़ी।भागदौड़ कर भीड़ में, पकड़ती हूँ शहर की रेल। शहर से कमा कर वापस आना, नही है कोई खेल।हँसती मुस्कराती ऑफिसों में, दिनों को गुजारती।आ घर, गिर बिस्तर में, दिन की थकी उ
आपदा अवसर बन गया।किसने अपने ज्ञान से बनाया वायरस को इस जहाँ में?मालूम न था उसे यह वायरस मौत का सौदगर बन जाएगा।उसे यह भी मालूम न था कि इंसान, इंसान से डर जाएगा।कर बैठा वह इतनी बड़ी भूल, की सुपरपावर भी थर्राएगा।हो रही छानबीन इस वायरस की कौन सी? दवा इसे तोड़ पाएगी।लगे है दुनिया भर के वैज्ञानिक इस ज्ञान क
नैनों से दिल में उतर गई|दिल में थी सुबह, शाम कर गई |बहे नीर रातों में उसके लिए|गीला बिस्तर वह कर गई|बदलते रहे करवटे रात भर |न उसका कोई न अपना कोई| नैनों से दिल में उतर गई|दिल में थी सुबह, शाम कर गई |बड़ी मुद्दतो से बसाई तस्वीर उसकी अपने आँसूओमें|पूछ न सके उसका पता, दिल पर कई
सोच बदलो।रोज़ रोज के शिसकने से अच्छा, एक दिन जी भर कर रो ले।सरकार की नीयत में खोट से, बेरोजगारी को निःसंकोच झेल ले।धरना प्रदर्शन को कोरोना वायरस ने, मूली की तरह निगल लिया।लोकडाउन भी अब, अनलॉक डाऊन में सरकार ने बदल दिया।एडमिशन पेपरों को लेकर, सरकार अड़ गई, विद्यार्थियों ने पहचान लिया।नई शिक्षा नीति के
अब सुन लो हमारी।देश-विदेश में फैली कोरोना महामारी।आसाम-बिहार में बाढ़ की महामारी।उत्तरप्रदेश में इनकाउंटर की महामारी।राजस्थान में राजनीति की महामारी।मध्यप्रदेश में बन गई सरकार हमारी।भारत के बाकी राज्य दबासँकोच की जिंदगी में।पाकिस्तान नेपाल चीन बन गए दुश्मन हमारे। हो जिसमें दम, वह खरीद ले सरकारी संपत्
जो बड़ा बना,वह गया।कली से खिलकर फूल बनकरबिखर गया।कोपलों से खिलकर बन पत्ताबिखर गया।नन्हा सा पौधा बनकर पेड़,वह भी कट गया।गिरी जो बर्फ पहाड़ो कोढकने के लिए वह भी बह गई।जमीन से उठी पार्टी नेआसमान चूमने के कोशिश किया।वह भी सिमट गईं इस जहांमे।गरीबी से उठकर अमीरों कोजानने की कोशिश किया,हो हताश ज़िंदगी से मौत क
इंसान और पत्थर की सूरत आज मन किया पत्थर की सूरत मे फूल चढ़ा दू। फूलो की क्यारी में गया वहाँ पर कई तरह के फूल थे उन फूलों को देख कर सोच मे पड़ गया की कौन सा फूल चढ़ाऊ? सिर्फ फूल वाले या फल वाले कुछ फूलों के नाम याद हैं। सरसो का फूल, मटर का फूल, सेम का फूल, तरोई का फूल, फिर मन मे ख्याल आया की अगर यह फूल
दान दो।दान तो सबकुछ कर सकते हैं राजा हरीशचन्द्र की तरह। भारतीय दान दोई हैं।बाद मे न पछताई कोई ।1 कन्यादान (जीवन भर के लिए)(सलाह दान)2 मतदान (पाँच साल के लिए )(गुप्त दान)
हम साथ है, तेरे।तू मरनी, मैं मोर हूँ तेरा।तू साज, मैं संगीत हूँ तेरा।तू आवाज, मैं कान हूँ तेरा।तू नागिन, मैं चन्दन हूँ तेरा।तू आँग, मैं जल हूँ तेरा।तू शेरनी, मैं मेमन हूँ तेरा।तू हवा, मैं बरगद हूँ तेरा।तू धरती, मैं आकाश हूँ तेरा।तू साथी, मैं हमराही हूँ तेरा।तू नदी, मैं किनारा हूँ तेरा।तू लाश, मैं कफ़
पेड़ कटे, दुर्घटना घटे, आसमान से बादल फटे।घरती फटे, फसल हो रही ओलो से बर्बाद।छोड़ जमीन चले मैट्रो, पिलर साथ सुरंगों में।चौड़े हो रहे हाइवे, सिमट गए बाग गमलो में।ऐसी कूलर लटके खिड़कियों में, बरगद पीपल सब गायब हुए।कर इंतजार पानी आने का, घर मे मोटर चला रहे।सुख गए कुआँ तालाब, घट रहा नदियों का पानी।बहती थी ज
<p>विच जान हैरान हो गई <br> <br> <br> नैनो विच नाक हो गई।<br> <br> दाँतो विच जीभ हो गई।<br> <br> शरी
न भूलो उनको।गैरों की तरह जब अपने देखने लगे।सच मे अपने और भी प्यारे लगने लगे।ता उम्र जिंदगी बिता दी हमने सबके लिए।सबने बस एक सलीका दिया, ज़िंदगी जीने के लिए।अब हाथो का हुनर, मशीने छीनने सी लगी।अब शोर कानो को, धुन सी लगने लगी।जिए हम भी थे, कभी शांती को जवानी की तरह।अब वह भी मुँह चुराने लगी, एक मोरनी की
मौके का फायदा।कोरोना को मौके के तौर पर इस्तेमाल करें। और जो भी बाहर से आ रहे है वो रोड पर सुरक्षा से चले।क्योकि वह त्याग और तपस्या से अपने घरों में दस्तक दे रहे है। पहले जो त्याग और तपस्या करते थे वह सन्यासी कहलाए, और आज का मानव प्रवासी मजदूर। चेहेर पर मास्क लगा के अपने-अपने वतन पहुंचे, क्योकी इकीस
दोआब का पागलमै पागल हूँ दोआब का, कभी इधर गिरा, कभी उधर गिरा।एक तरफ भृगु मुनि का घाट, दूसरी तरफ मौरंग के घाट।एक तरफ मानव की भीड़, दूसरी तरफ ट्रको भीड़।मै हूँ पागल दोआब का।एक तरफ पार हुआ सटासट, दूजी तरफ पीपा पुल यमुना में डोल रहा।एक तरफ कर स्नान पुजारी, पूजा मन्दिर में करता है।दूसरी तरफ हो सवार नाव में
न छेड़ प्रकृति को।गर्मी से झल्लाउ, ठंडी से घबराऊँ।डर वर्षा की बूँदों से छिप जाऊ।गिरते पतझड़ के पत्तो से शरमाऊं। बहे बयार तूफानी गति से आँखे भी अंधी हो जाए। जितना प्यार करु प्रकृति से, उतना ही थर्राऊ।कर प्रकृति का विनाश, महामारी को फैलाया।जब-जब आई महामारी से, हर मानव हरि-हरि चिल्लाया।न छेड़ प्रकृति को व
न वर्दी, न तिरंगा, यह तो खूनी कफ़न हैं ।वर्दी मे हसता खिलखिलाता मेरा सपूत दिखता हैं वह चेहरा मेरी आंखो मे चमकता हैं। उसकी बाजुओ मे लटकती बंदूक खिलौना लगती हैं। वह उस खिलौने से न खेल सका। वह उस पल को न समझ सका न खेल सका, अपनी पत्नी, माँ, बच्चों को छोड़ गया, रोने की किलकारी सब मे, लिपटे कफ़न तिरंगे मे
कोरोना का काबू।कोरोना --- कोई रोजगार नही।कोरोना --- कोई रोकथाम नही।कोरोना --- कोई रोए ना।कोरोना --- कोई रोकड़ा नही।कोरोना --- कोई रोल नही।कोरोना --- कोई रोको ना।
बरसाती पानी से बचने के लिए वरदान थी बरसाती|घर की छतो, छप्परो में चिपकाना शान थी बरसाती|गल्ला मंडी, सब्जी मंडी में बनी रावटी में बरसाती|आटा चावल दाल मसाले कुरकुरे बंद हैं बरसाती में|नाम बदल बरसाती का पोलिबैग पोलिथीन कहने लगे|बना कर बरसाती की बोतल को रेल नीर कहने लगे|बन गई वरदान समाज के लिए खाली हाथ ब
कोरोना से डेराने हैं।अभी लेखक सभी हेराने हैं ... कही लिखते मिले तो भईया हमे बता दइयों। कोरोना मे अपने वजूद को भुलाने हैं।खोकर मीडिया के हो-हल्ला मे, सामाज को रचने वाले शब्द हेराने हैं... कवि, ब्यंग, शायर, गजल सभी बौराने हैं,खोज-खाज राजनीति के चुटकले उन्हे नही फैलाने हैं।सच कहने व लिखने से लेखक भी
वक्त करवट ले गया।गाँव से भागे, शहर में कमाया मौज मनाया।गाँव की गलियाँ सूनी, शहर की गलियों में रंगरलियाँ।गाँव बड़े , घर मन न भए, शहरों में झुग्गी बस्ती बनाए।जीकर नरक भरी जिंदगी शहर में, गाँवों में नाम कमाए।छोड़ छाड़ माँ बाप की ममता, शहर में प्यार प्रेम कमाए।सुबह नहाए कम्पनी को जाए, कर याद गाँव को पछताए।
अभी भी बहुत कुछ हैं।जो मला गया,वह घागा।जो घिसा गया,वह हीरा। जो गूथा गया,वह माला।जो काटा गया,वह मूर्त।जो तपाया गया, वह सोना।जो जलायी गई,वह बाती।जो नकारा गया,वह राम।जो लूटी गई,वह सीता।जो पीटी गई,वह तलवार।जो चुनी गई,वह ईमारत।जो भगाई गई,वह गंगा। जो बिन पाव चले,वह लक्ष्मी।जिसकी कोई थाह नहीं,वह सागर।
बसेरातिनतिन बिन, बना बसेरा लेती चिड़ियाँ।सांझ से रह बसेरे मे, रात गुजार लेती चिड़ियाँ।उड़ भोर परे खेतों से, दाना चुँग लेती चिड़ियाँ ।कुछ दबा चोच मे दाना, उड़ आती चिड़ियाँ ।बैठ बुने बसेरे मे, बच्चो को दाना चुनती चिड़ियाँ।कर प्यार पूरा, उड़ेल दाना बच्चे के मुँह मे,दूर गगन मे उड़ जाती चिड़ियाँ।न मांगती भीख किस
अभिब्यक्ति हेराई हैं।हमरे लेखक हेराने हैं ... कही लिखते मिले तो भईया हमे बता दइयों। राजनीति मे अपने वजूद को भुलाने हैं।खोकर मीडिया के हो-हल्ला मे, सामाज को रचने वाले शब्द हेराने हैं... कवि, ब्यंग, शायर, गजल सभी बौराने हैं,खोज-खाज राजनीति के चुटकले उन्हे फैलाने हैं।सच कहने व लिखने से लेखक अभी डेरा
अन्नदाताओं का मसला है। कानून घिर गया।ठंड़ीयो से खेलेंगे, दिल्ली बॉर्डर को घेरेंगे।कोरोना को डंडा-लाठियों से किसान पिटेंगे।दिल्ली में घुसने की देरी है, अब किसानों की बारी है।काला कानून वापस लेने की तैयारी है। जय किसान।जिसको आना है बॉर्डर आओ, बुराड़ी को न जाना है।कोरोना मर गया। दिल्ली में फस गया।कोरोना
सब कुछ धरा में हैं .सबकी कब्र यही हैं, मुमताज़,बाबर,औरंगजेब,शाहजहाँ बस इनका शासन काल बदला।सबकी पहचान यही हैं संसद,कोर्ट,इंडिया-गेट,क्रिश्चन,बसइनका शासन काल गया हैं। कांग्रेस मुक्त भारत होगया, उनके लोग अभी यही कटी मछली की तरह तड़प रहे है।भाजपा अभी मौज़ ले रही है,देश-दुनियाँ मे आग लगा रही अपनों को ही त
न छेड़ो प्रकृति को आज भी हवाए अपने इशारे से बादलो को मोड़ लाती हैं। गर्म सूरज को भी पर्दे की ओट मे लाकर एक ठंडा एहसास जगाती हैं। रात की ठंड मे छुपता चाँद कोहरे की पर्त मे, उस पर्त को भी ये उड़ा ले जाती हैं। प्रकृति आज भी अपने वजूद और जज़बातो को समझती हैं हर मौसम को।पर मानव उनसे कर खेलवाड़, अपने लिए ही मु
पर्दे भीडसने से लगते हैं। घर सेनिकली औरत,कोहरे मे काम के लिए।खूब कसीऊनी कपड़ो से,लटका बैग कंधो मे।इधर कोई न, उधर कोई, लिए गीत अधरों मे।देखअंधेरा चरो-ओर ले, कदमो को रफ्तार मे।वहगलियारो मे, अपनेपगचिन्हों को छोडती।झोड़, नाली-नाले ककरीली पथरीली सड़कोमे।खेत, रेत,सबपार किया शमशान की मुडेरों से।वह निकलीकोहरे
टिकरी बॉर्डर से।इतिहास गवाह है, राणा भी काफिले में आया था।मरने के बाद आज भी उनका काफिला आबाद है।देश की उन तमाम सड़को के किनारे बसें है।जिन्हें लोग बैलगाड़ी वाले लोहार कहते है।वह प्राचीन इतिहास को जिंदा किए हुए अपनी जिंदा दिली से जिए जा रहे है। उस वक्त की सरकार उन्हें बा
पेड़ की छांव में डाल खोजना, उड़ -उड़ कर रसीले फूलो को खोजना मेरा काम है। फूलो के पराग पुंकेसरो से रस चूसना काम है मेरा। अपने दोस्तों हमजोलियों को उस डाल तक लाना काम है मेरा। हम एक दूसरे से कैसे लिपटती/लिपटते है तुम क्या जानो? तुम तो बस इतना जानते हो कि मुझे डंक चुभना आता है।तुम हकीकत को क्या समझोगे कि
बेवजह न उलझो।बेवजह न उलझो मेरी जान, अभी जिंदगी जीना है..कल को किसने देखा मेरी जान, बियर विसकी रम पीना है।करवटे बहुत बदल लिए मेरी जान, अभी जी भर के सोना है।बेवजह न उलझो मेरी जान, अभी जिंदगी जीना है..कौन क्या लेके जाएगा? सब यही पड़ा रह जायेगा।ये खुशियों के दिन है, ख़ुशियों में जियो, गम में क्यो जीना है?
शहर की जिंदगी, घुटन बन गई हैं।जब शहर था सपना , तब गाँव था अपना।सोचा था शहर से एक दिन कमा लूँगा, के गाँव मे एक दिन कुछ बना लूँगा।शहर की चमक ने मुझे ऐसे मोड़ा, शहर मे ठहर जो गया थोड़ा।अब जिंदगी बन गई हैं, किराए का साया।मोडू जो गाँव का रुख थोड़ा, शहर की चमक बन गई है रोड़ा।कमाया था जो हमने शहर से, वो सब यही
<p>किसान/ प्रशासन<br> <br> <br> अगर भूला भटका किसान को मिले तो उसे अपना साथी बनाकर खेतों के रास्ते ग
कोरोना से डेराने हैं।अभी लेखक सभी हेराने हैं ... कही लिखते मिले तो भईया हमे बता दइयों। कोरोना मे अपने वजूद को भुलाने हैं।खोकर मीडिया के हो-हल्ला मे, सामाज को रचने वाले शब्द हेराने हैं... कवि, ब्यंग, शायर, गजल सभी बौराने हैं,खोज-खाज राजनीति के चुटकले उन्हे नही फैलाने हैं।सच कहने व लिखने से लेखक भी
<p>और क्या कहना?<br> <br> लड़ो तो शेर की तरह, चलो तो भेड़ की तरह, बहों तो नदी सागर की तरह, चमको तो सू
फर्क सतयुग मे औरत यमराज से अपने पति को जीत लिया।त्रेता युग मे औरत पुरुष एक समान थे।अहिल्या बहाल हुई। पर अंत मे सीता हरी गई। द्वापर मे औरतों पर उंगली उठने लगी राधा ने प्यार किया, मीरा ने प्रेम किया। रुकमनी ने विवाह किया।अंत मे द्रोपदी का चीर हरन हुआ ।कलयुग मे सभी नारी-नारी चिल्ला रहे हैं, नारी को मज
त्रासदी और मौत बिना रास्ते और पते के ही अपने मुक़ाम तक पहुँच जाती है। पानी, आँग, हवा इनके साथी।मानव मथुरा जाये चाहे काशी।<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_200508_053321_893.sdoc-->
ओला बौछार काले घने बादल जब अपनी जवानी मे आते हैं आसमान मे।जमीन मे मोर पपीहा खूब इतराते हैं, नृत्य करते हैं आसमान को निहार कर, कल वह भी बौरा गए ओला वृष्टि को देख कर। कल शहरी लोग पहले खूब इतराए ओलो को देख कर फिर पछते सड़क मे जब निकले ऑफिस से कार पर। किसान खुश था पानी की धार को देखकर वह भी पछताया गेंहू
सब सेवक बन गए है।पेड़ में बैठने वाले पंछी कहाँ जाएंगे? जब पेड़ ही धरा में समा जाए। इस वजह से पेड़ की तुलना प्रवासी मजदूर व प्राइवेट नौकरी से है।अगर नदी का पानी सूख भी जाए, तब भी नाव नदी में रहेगी पानी न सही रेत काफी है। इस वजह से नदी की तुलना सरकारी नौकरी से है।पहाड़ो में औषधि है, राजनीति में पैसा है। स
अब अपने मनसे जीव।आटा-लाटा ख़ाके, ताजा माठा पीव।देख पराई कमाई, मत ललचाव जीव।हो घर मे जो, उसको खा-पी के जीव।चाईना ने तिब्बतके बॉर्डर मे मिसाईल तान दी।1965 मे सहस्रसिपाहियो ने अपनी बलिदानी दी ।जो घर मे होघीव, देख उसे शकुनसी जीव।देख राजा-नेताओके झगड़े मे, मत जलाओअपना जीव।छोड़-छाड़ जातीधर्म आरक्षण का वहम खुद
बेबसी सरकार की...हिन्दू मुस्लिम सिख ईसाई, आपस में सब भाई-भाई।कोरोना ने इनमे दूरियाँ बढ़ाई, नेताओ ने मौज मनाई।जहाँ हो वही रहो यह बात, जनता को समाझ न आई।कोटा के विद्यार्थियों ने,सत्ता में खूब उठापटक मचवाई।जाग परेशान सत्ता ने, एक मई से श्रमिक ट्रेन चलवाई।चढ़ भेड़ बकरियों की तरह, ट्रकों में अपनी जान गवाई।स
कश्मीर अपना सा लगने लगा| था देश कभी एक, भारत को टुकड़ो में बाटा गया|करके टुकड़ो में हमें, एक बार नहीं, कई बार लूटागया|ब्यापार जब से शुरू हुआ, हम लूटते ही रहे...|अकबर धान,पान, केला, लाया, अयोध्या में मस्जिद बनवाया|कर अमीरों से सौदा, ईस्ट इण्डिया कम्पनी भारतमें बन गई|कर किसानो का दोहन, किसा
छांव की तलाशतप रहे हो धूप मे, तो तपो घूप मे, कर्म जो ऐसे किए हैं, घर की छत मे गमले लगा कर, गली के पेड़ को कटवाँ दिए है।जाव अब कहाँ जाओगे? लौट कर एक दिन पेड़ की छांव मे आओगे।भूल जाओगे शहर को एक दिन, गाँव जरूर आओगे।या फिर शहर को ही गाँव बनाओगे।यह तो मुमकिन ही नहीं, ना मुमकिन हैं। यह कोरोना महामारी से प
छोड़ेंगे न साथ।परछाई ही हैं जो स्वयम के वजूद को और मजबूत करती हैं। बाकी तो सभी साथ छोड़ देते हैं। परछाई हर वक्त साथ रहती हैं। दिन हो तो आगे-पीछे अगल-बगल और जैसे ही ज़िंदगी मे अंधेरा होता हैं वह खुद मे समा जाती हैं पर साथ नहीं छोडती हैं। कभी आपसे आगे निकलती हैं और तो और वह आपसे बड़ी और मोटी भी हो जाती है
लॉक(प्रवासी) अनलॉक(अप्रवासी)कोरोना महामारी ने क्या नया नाम इज़ाद किया?अपने ही भ्राताओं को प्रावासी मजदूर किया।दे नाम बेरोजगारी का नेताओं ने क्या चाल चली?चलती थी पहले भी रेल, उस रेल को श्रमिक नाम दिया।दे ना सके भरपेट भोजन, सब को होम क्वारन्टीन किया।अब पड़ोसी भी उसे, कोरोना महामारी का स्रोत समझने लगे।कर
युवा नौकरी का टैग पाने के लिए घर परिवार से दूरहोकर डिप्रेशन में हैं युवा|कर एम.फिल. पीएचडी शर्मसार है युवा, कर पढाईलिखाई बेरोजगार हैं युवा|गुजर रही आधी उम्र पढाई में, बाकी की उम्र में बीमारहैं युवा |निकलती हैं नौकरी आठवी पास की, उसमे भी साईकिलचलाने को तैयार है युवा|शादी -विवाह की बात छोडो, खुद का पे
जिंदगी माँग ले।हम तो यारा एवन साइकिल के, तू माँग करे, कार फरारी की। ऐसा युग जिसमे, इंसान, इंसान से डरे कोरोना महामारी से। अपने अपने साधन खोज लो, न डिमांड करो जागवारा की।आदमी की कीमत से ज्यादा, गैस तेल पानी महंगा हो गया।इस दौर के वायरस से, अपना, अपने से पराया हो गया।इस मौत के तांडव से, जीवन देने वाल
भाषा ने जो कहा।(साहित्यकार और बनारस के गीतो के राजकुमार नामवर सिंह को समर्पित कविता)जो खेल सका दुनियाई भाषा से वह खेल बहुत निराला हैं।किसान का हल, जवान की ताकत, लिखने वाले की कलम, बोलने वाले की आवाज।जब चारो मिलते हैं देश दुनिया के बागों मे महकते सुंदर फूल खिलते हैं।दुनियाँ जिससे ऊपर उठती हैं, यह दफ़न
अंदाजे बयां।पतीले मे पकते सेर भर चावल मे किसी एक को पकड़ कर सब को समझना।आसमान की तरफ निहार कर, यह तय करदेना कि क्या वक्त हुआ हैं?किसी के सामने खड़े होकर उसके चेहरे को पढ़कर बताना कि वह क्या सोच रहा हैं?दरवाजे पर उतरे जूता, जूतियों, स्लीपर आदि को देखकर तय करना आदमी कि औकाद क्या हैं?लड़की से दो मिनट बात क
जान अभी बाकी हैं | हरि को नहीं देखा इंसान बनाते हुए|इंसान को देख हैं हरि को बनाते हुए |अमीरों की लकड़ियाँ उनकी अस्थिमंजर हैं|उनकी अस्थिमंजर गरीबो की छत्र छाया हैं |गौर से देखा उनको चौक-चौराहो मे बैठे हुए|सवार ट्रक मे ढ़ोल लंगाड़ो मे रंग गुलाल उड़ाते हुए|जल समाधि की वजह से उनकी काया बदल गई|बची अस्थिमंजर
पीले की खीर बनाई, हरे की सब्जी।आज कल के बच्चों को क्या समझाऊ?बैठ गली में, खेल रहे दोस्तो संग पब्जी।
जीने की चाहत<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_200815_041714_693.sdoc-->लॉकडाऊन लगा कर, जान बचा लिया तुमने।जीते जी बाहर निकाल प्रवासियों को, मार दिया तुमने।घर कैद कर लोगो की, जीने की चाहत बढ़ा दिया तुमने।अपने परायों के प्यार की, औकाद दिखा दिया तुमने।शहर में प्रवासि
जुबा चुप क्यो?आपकी खामोश जुबा ने ,महफ़िल की नज़रों में चोर बना दिया|ताकते रहे आपकी नज़रों को, कभी तो इधर उठेगी, कुछ कहेंगी|ता उम्र साथ देने का वादा करती रही, खुशियों के फूल भरती रही|खुशियों के फूलो को संभाला बहुत, आपकी एक मुस्कान के लिए|साथ जीने मरने के वादे करते रहे तुमसे, रोज प्यार पाने के लिए |लड़ते
दोखे के शिवा कुछ नही।वोट डालायो, मतदान करायो, नेता जी दे गए दोखा।स्कूल पढ़ायो, कालेज भेजवायो, नौकरी दे गई दोखा।महल बनायो, रंग-साज बनायो, बिजली दे गई दोखा।अपनो से हाथ मिलायो, साथ निभायो, वक्त दे गयो दोखा।मास्क लगायो, सेनिटाइजर करायो, दियो कोरोना दोखा।लोकडाउन करायो, क़वारीनटिन करायो, प्रवासी दियो दोखा।
मन मे कुछ और पहली हीनज़र मे दिया उसने धोखा।हम भी नकम थे उसीके गली मे,रख दियापान का खोखा।जब भीनिकलती वो अपनी गली से,नजरेलड़ाके वो, नज़रेचुराती वो।कभीइतराकर कभी मुस्कराकर,हमे वोजलाती, हमे वोजलाती।जाती कहाँथी? हमे न बताती,हम भी उसीकी यादों मे जलने लगे...पहली हीनज़र मे दिया
पता चला है।पता चल गया अम्बानी अमीर कैसे हो रहा है?स्कूल फीस मांग रहा, माँ बाप का डाटा जिओ खा रहा।लाईन में दुनियाँ आ गई, ऑनलाइन सब काम हो रहा।मौसम बेतुके हो गए, बेरोज़गारी का जामा ओढ़ कर। पढ़े लिखे विद्वान, कलम तख्ती छोड़कर आई फोन में खो गए।अभी पूंजीपतियों की रेल सरपट दौड़ी नही, आशियाना उजाड़ने का फरमान आ
वर्दी कोट का झगड़ा अदालत थाना आपस मे भिड़ जानेलगे।जबकि न्याय सुरक्षा सिक्केके दो पहलू है।इस से सामाजिक मानव प्राकृतिसंसार हैं।जब यह दोनों आपस मे लड़ जाएंगे,सामाजिक कुरीतियाँ और बढ़ जाएंगी।चोर,आवारा जेबकतरों की मौज होगी।जेलों मे होली अदालतों मे मखोलीहोगी।शासन,सत्ता मौन होगी आकाओ की मौज़ होगी।विदेशो मे मौज़
जब लोग बसे हो आंखों में, खोज लेंगे उन्हें लाखों में। जब नही बसें है आंखों में, क्या ख़ाक खोजेंगे लाखो में?<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_201010_090330_749.sdoc-->
लौट चले दिल्ली शहर से रोजगार।अब सील ने हर हुनर वाले की जुबान बंद कर दी हैं। सील कंपनी मे नहीं हुनर वाले के पैरो मे बेड़ियाँ पड़ी हैं। इससे अच्छा तो तिहाड़ की जेल मे बंद करके सबके हुनर को कैद कर लेते। कम से कम अंग्रेज़ो वाले दिन तो याद आते। इन्होने तो उस लायक भी नहीं छोड़ा। मजदूर कल भी आजाद था आजा भी आजाद
दिल्ली कूच न करो, दिल्ली के सारे बॉर्डर सील करोजय जवान, जय किसान एक दूसरे के आमने सामने।पहले किसान बाप, बेटा जवान, हक में आमने सामने।बदल गई नज़ीरे, जो कभी मन में उमंग भरती रही।पहले के आंदोलनों से नेता निकले, आज आंदोलन नेता के लिए।देश जहाँ था वही है, और टुकड़ों में बट गया। इंसान की सोच पहले भी ज़हर उगला
भविष्य की आवाज।जुबा चुप ही सही सत्य बोलताहैं, गरीब ही अमीरी को जानता हैं।लम्हे कितने भी दुख भरे होजीवन की राह मे, चलते रहो मंजिल की तरफ। जिसे मजदूर अपनी जरूरत समझताहैं, अमीर उसे अपना सौक समझता हैं।मोटा दाना खाने वाले को दिमागसे मोटा कहते हैं,चना खाकर घोड़ा दौड़ता हैं।मक
यह मैं नही, मेरी माँ कहती है।जब मैं पैदा हुआ दादी की गदेली भर का था।तब परदादी ने पच्चीस पैसे में खरीद लिया था।यह मैं नही, मेरी माँ कहती है।बुआओं की गोंद में खेल कर उंगली पकड़ खेला था।कुछ बड़ा हुआ दिन गुजरे ननिहाल की खेत पगडंडियों में।यह मैं नही, मेरी माँ कहती है।ददिहाल भी अछूता नही रहा, मुझे प्यार देन
नसबंदी अभी भी जरी हैं ठिठुरन से उलझे मुलायम नाज़ुक बाल जिनको सेकने के लिए पूस की सुबह में निकलने वाली नखराली सूरज की धूप अभी बस्ती के सामने खड़े लंबे पतले ऊंचे यूकेलिप्टिस के पेड़ों के पत्तो से झाँक कर गली व सड़क के बहुत कम हिस्से को गर्म करती उसी जगह उनकी बैठक होती सभी एक दूसरे के साथ खेलतें क़िला
पानी से नफरत किसको?आँग पानी से बुझती है।पत्थर पानी से कटता है।गंगा पानी संग बहती है।पेड़ पानी से पलता है।फसल पानी से खिलती है।पानी से इंसान की प्यास बुझती है।पशु, पक्षी पानी मे कलरव करते है।नाव जहाज़ पानी के संग बहते है।मछली भी फुला गलफड़े सासे भरती है।क़्क़सरसों को भींगा पानी से कोल्हू में पेरा जाता है।
गेहूँ की पकी फसल में गिरती चाँद की रोशनी एकदम साफ थी। हवा के बहने से गेंहूँ की बालियां आपस मे रगड़ कर बज रही थी। घर बहुत दूर छूट गया था। रास्ता लंबा था। अनगिनत खेत पार कर चुके थे। हाथ मे लटकती लालटेन में जल रही बाती भभक कर तेज हो जाती तो कही बिल्कुल डिम हो जाती। दूसरे हाथ मे नीम के पेड़ की पतली छड़ी को
किसान vs सरकारकिसान मजदूर एक सिक्के के दो पहलू इस जहाँ में बने।किसान बिन मजदूर अधूरा, मजदूर बिन किसान अधूरा।किसान का खेत लहराए मजदूर और खुद के पसीने से। वक्त अब इतना बदल गया, बैल की जगह ट्रैक्टर आ गया।डेगची बेलचा की जगह, खेत किनारे ट्यूबवेल लग गया।घर जमीन के बाद, रेल कॉरिडोर के साथ हाईवे भी बन गए।रे
पानी...अब न खोदो कुआँ न गाड़ों हैंड पम्प, न लो नाम समरसेबल का।नदी, नहर, सागर हो रहे प्रदूषित न नाम लो तालाबो का।बहने दो पानी को पाईप लाइनों मे, न नाम लो टैंकरो का। छत मे रखी टंकियाँ हो रही हैं बदरंग, न नाम लो आरो का।दूध से महंगा बिक रहा हैं, बंद बोतलों मे बिसलेरी का पानी।सरकार प्लांट लगवाए यह कहकर कि
बावरापन नहीं अकेलापन बहुत कुछ आ जाने से बावरा होना लाज़मी हो जाता हैं।मानव के इस बावरेपन को एक पेड़ के जरिये सीचते हैं।मिट्टी मे जड़े धसा दिया, जमीन से सबकुछ ले लिया।आसमान को इस आश से निहारता रहा एक बूंद पनी के लिए।खुद को इतना हरा किया नई कोपलों के साथ कली फूल से फल बनाया।फूल-फल दोनों चले गए शहर की बाज
नादान उठोसोये हुए को जगाना आसान है, अलसाए हुए को उठाना मुश्किल है। बोलियां चलती है तो लोग कहते है बकवास है, गोलियां चलती है तो कहते इनका दिल मर गया है। मांगते है तो, भिखारी कहते है। अगर छीनने में उतर आए, तो हैवान कहते है। पढ़ते नही तो अनपढ़ है, पढ़े लिखे तो बेरोजगार, मेहनत से कमाए तो मजदूर , मिल गई सर
भाषा ने जो कहा।जो खेल सका दुनियाई भाषा से, वह खेल बहुत निराला हैं।किसान का हल, जवान की ताकत, लिखने वाले की कलम, बोलने वाले की आवाज।जब चारो मिलते हैं, देश दुनिया के बागों मे, महकते सुंदर फूल खिलते हैं।दुनियाँ जिससे ऊपर उठती हैं, यह दफन उन्ही को करती हैं।हल-ताकत-कलम-आवाज आज के दौर मे दबने से लगे इस जह
जीवन साथी हो सुन्दर तो आईना बना जाइए , ताकि वह अपनी सुंदरता उसी में देखे . हो अगर पैसे वाली तो उसका बटुआ बन जाइए वह पैसा उसी में रखेगी . गर रखती है भगवान में आस्था तो भगवान् बन जाइए , चन्दन उसी में लगाएगी . हो अगर कठोर तो मुलायम बन जाइए और ऐश के जिंदगी जिओ .
बचपन कितना अच्छा था।जब दांत हमारे कच्चे थे।कमर करधनी, पैर पैजनिया,चल बईयन, सरक घुटवन खड़े हो गए।पकड़ उंगली दादा दादी की,सैर गाँव की कर आते थे।ले चटुवा, गाँव की दुकान से,लार होठो से, दाड़ी तक टपकते थे।धो मुँह माँ हमारी, काजल आँख धराती थी।कर मीठी मीठी बातें बकरी का दूध पिलाती थी।उतार हमारे गर्दीले कपड़ो क
पान काखोखा पहली हीनज़र मे दिया उसने धोखा।हम भी नकम थे उसीके गली मे,रख दियापान का खोखा।जब भीनिकलती वो अपनी गले से,नजरेलड़ाके वो, नज़रे चुराती वो।कभीइतराकर कभी मुस्कराकर,हमे वोजलाती, हमे वो जलाती।जाती कहाँथी, हमे न बताती,हम भी उसीकी यादों मे जलने लगे...पहली हीनज़र मे दिया उसने धोखा।हम भी नकम थे उसीके गली
कोविड 19 से 2021 तककुदरत की कहर से, शहर गाँव दोनो कॉप गए।थम नही रही सासे, ऑक्सीजन की कमी से।देवालय, विद्यालय, अस्पतालय सब एक हो गए।अज़ान, घण्टियाँ, गुरु वाणी, चर्च प्रार्थना, सब थम से गए।एम्बुलेंस के सायरन से, अब रूह, जान सब काँपने लगी।देख लाशें कब्र और समशान में, आंकड़े धरे के धरे रह गए।कभी दो बूंद ज
तन्हाई मित्र हैं. झरने की झर्झर,नदियों की ऊफान, पहाड़ की चोटी पर झाड़ मे खिले नन्हेंकोमल-कोमल फूल जो हवाओं से बाते करते। वादियो, घाटियों, समतल मैदानों मे भटकता एक चरवाहा तरह-तरह की आवाज को निकाल अपने आप कोरमाए रखता। कभी ऐसे गाता जैसे उसे कुछ याद आया हो। उस याद मे एक कशिश की आवाज। वहइन समतल वादियों म
दादी ने इश्क किया।साठ साल पहले दादी ने, गैर गाँव के लड़के से इश्क किया।लड़का लम्बा तगड़ा मूँछ अपनी टाईट किए, दादी अपनी छोटी हाईट लिए।वह सुर-सरगम, हारमोनियम, मौहर, बीन सुंदर बजाती थी।उसके मन को मोह लिया, खुद के परिवार से रिश्ता तोड़ लिया।इश्क बग़ावत झेल न पाया वह, दुनियाँ से नाता तोड़ लिया।हो अकेली जग संसा
कोरोना फैला है सारे संसार मा। गले मिलने की बात छोड़ो हाथ का धप्पा भी न दे किसी भी बात मा। न बस चले न रेल चले, न चले कलकारखाने लोग निकल पड़े है अपने गांव को। सब खो गई उम्मीदे मानव के अंदर की।गली चौक चौबारे खत्म हो गए पब बियर-बार लकड़ी ताश के घेरे। पड़े हुए कोरोना के डर से परदेशी प्रदेश मा। कोरोना फैला
<p>झूठ बोले देश चलाए, <br> <br> <br> झूठ बोले देश चलाए, ऐसे राजनेताओं से डरियो।<br> <br> देश को बर्ब
जिधर जिंदगी उधरी मौत।आज की भागदौड़ भरी जिंदगी में, किसी को फुरसत कहाँ?सुबह की हड़बड़ी में पानी का टैंकर, गली में हॉर्न बजा रहा था।स्वच्छता अभियान के तहत, एक सावला लड़का झाडू लगा रहा था।मन कुंछित दबे पांव, मजदूर काम पर जा रहा था।मौत किसको कहाँ ले जाए? यह जाने वाले को पता न था।भागा वह भी था, भूखा पेट रोटी
<p>कुर्सी का टोटका।<br> <br> बनी भी कुर्सी, लकड़ी काठ लोहा प्लस्टिक की।<br> <br> राजगद्दी, जयमाला कुर
लॉक डाउन बढ़े नही ! कोरोना से कोई मरे नही।हाथ कभी मिलाए नही, सामाजिक दूरी बनाए रहे।नजर कभी झुके नहीं, रिस्ते कभी टूटे नही।सैनिक तुम बढ़े चलो! डॉक्टर तुम बढ़े चलो!सफाई कर्मचारियों से अनुरोध है,कोरोना से डरे नहीं गली,मकान को सेनेटाइज करते रहो। मास्क ग्लब्स हटाना नही।लॉकडाउन अब बढ़े नही , कोरोना से कोई
<p>डर अब इन लहरों से।<br> <br> सागर संग लहरे है, नदी लहरों संग बहती है।<br> <br> हवा संग फसल लहराए,
सब कुछ लागे नया-नया ।दे-दो जो देना चाहते हो नये साल मे,यह नया साल हर ठंडी मे ही आता हैं।भारतीय रीत रिवाज मे नया साल हम तब मनाते हैं जब हमारे देश का किसान व जवान दोनों खुश होते हैं। गाँव के खुले मैदान व खेतो मे बहन बेटियों की शादियाँ हो रही होती हैं। पेड़ों की छाव मे बिस्तर लगे होते हैं। कुआँ का ठंडा
<p>बंजारे (बन+जा+रे)<br> <br> न धन चाहिए न दौलत बस, अपना हक चहिए।<br> <br> हक मांगने आए थे, हक मिला
कदम नाचते है।बचपन की बातें अक्सर दोहराई जाती हैं जो कभी भूलती नही वह दिमाग के किसी कोने में यादों की फटी चादर से झाँकती रहती हैं। जब भी मौका मिलता झिरी से दिखने वाले छेद से बाहर निकल कर नए नए किस्सो को पैर दे कर वापस कही गुम हो जाते है फिर कभी लौट कर आने के लिए। मौसम वही सुहाना जो मन को भाए दिमाग क
"दो जून की रोटी"न पेट होता, न रोटी का झगड़ा होता।रोटी के स्वाद अनेक, पर पेट एक है।हाथ मे रोटी, सब के कर्म की है रोटी ।अमीरी गरीबी की पहचान है यह रोटी।फ़िल्म में रोटियां की दास्तां निराली है।जग संसार मे रोटी की कहानी निराली।यह रोटी मौत की सौदागर बन गई है कही।घर द्वार जग
कैसे समझाऊ?देश विकास कर रहा है, सोना आसमान छू रहा।किसी का आँख मुँह तिरछा ,यह सेल्फी कह रहा।पानी जमीन का घटा, पानी चाँद की गोद मे दिख रहा।मानव कर प्रकृति को बर्बाद, रहने चाँद में जा रहा।दिल्ली का जाम झेला नही जाता, हैलीकॉप्टर की बात सुन
हर तपका सत्यता से मुँह चुराए है।सत्यता पीड़ा जो देती है कहने में।सत्य की पीड़ा कभी बयां नही होती।आखिरकार सत्य तो सत्य है फिर मुखौटा क्यो?कोरोना का संसार मे सारांश है जो सत्य है।को- कोई रो- रोज़गारना- नही।<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_200514_121216_102.sdoc-->
बसंत पंचमी दिली अरमान थे माँ से मिलने के सो मिलने चले आए दरबार मे।माँ का प्रेम अजीब हैं वह अपने नजदीक बैठने के लिए लोरी सुनाती हैं।लोरी वह जो मन को शकुन देती हैं आंखो मे नींदियाँ ला देती हैं।आंखो मे अपने ममता का आँचल बिछा देती हैं, जिसकी छाया मे कौन बालक नहीं सोना नहीं चाहेगा? वह उसका पल भर का प्रेम
मौत से बचने की दुआ।बाग-बगीचे, नदी-नहर, खान-पान, लोक-लज्जा, कीड़ेमकोड़े, गौरेया, गिद्ध, गाय, नीलगाय को तड़पाने के बाद।खुद तड़पने लगा, इंसान इंसान से डरने लगा।छुआछूत के बेल पनपने को रोक रहा था हर कोई।दूरियाँ मिटाने की राह में चले थे सभी, कोरोना ने और दूरियाँ बढ़ा दिया।मानव निर्मित हर चीज बहुत लाभदायक होने
(कसैलेपन का कसाव) मेड़मफोटो खीचेंगी यह लाईन अभद्रता भरी लाईन या अभद्रता की प्रतीक थी। एक चाटा भरी आवाजके साथ प्रतीक वर्दियों से घिर गया। किसी के कमर मे काली बेल्ट पैरो मे काले जूतेजिसमे चेरी की पोलिस ही चमक रही थी। किसी के कमर मे बंधी लाल बेल्ट पैरो मे लालजूता वह दरोगा या कह लो सब इंस्पेक्टर यह ला
शहर तेरा, गाँव मेरा"हम तेरे शहर में आए है मुसाफ़िर की तरह, कल तेरा शहर छोड़ जाएंगे साहिल की तरह, शहरों में सह मिलते है। गुलशन में गुल खिलते है। सारे शहर में आप जैसा कोई नही। दो दीवाने शहर में। सारे शहर के शराबी मेरे पीछे पड़े। सारे शहर में कैसा है बवाल। एक अकेला इस शहर में, मोहम्मद के शहर में, शहर की ल
घर हैं, तेरा भी कही?उठते सागर की लहरों में, दिखती दिखती रही वह|बहते पसीने की बूंदों में, लिपटकर सूख जाती हैंवह|खाए हमने बहुत उसके झोंके,पेट को भूखा रखती वह| यहसबसे कहता रहा, इस जहाँ में भूखो मरता रहा| अपनी जान समझ, जीने के लिए उसके साए में रहा|करती वह भी गुमान कभी, रुक कर किसी डाल में|इस जमी में नाम
यूँही।हाय बाय से दुनियाँ भौसागर चले।स्नान ध्यान से तनाव मनवा चले।रहे सदा प्रकृति बहे हवा मस्तानी।मिले रोशनी सूर्य चाँद और तारो की।पहाड़ में झरना झरे, नीर मिले नदी और सागर में।खा खाना हुई आवाज बुलंद, ज़ुबान चले मनमाना। महामारी से दिल कॉप गया,अब दुनियाँ चले उतना।<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.
हार कर घर कर गई ।बना रहा था याद मे उसकी तस्वीर जो कभी मिली नहीं।गुम था उसी की यादों मे जो कभी बोली नहीं। चाहत थी उसे पाने की फूलो की तरह, वह फूल नहीं, माला बन गईं न जाने किसके गले का हार बन गई। हार गया उसे भी हार मे। हार के बगीचे मे बैठे सोचता रहा उस हार के बारे मे जो कभी अपना हुआ नहीं । रात भी गुजर
साइकिलबचपन अछूता नही साइकिल से, किसानों के फसल को ढोती साइकिल, डाकिया की साइकिल गुजरती घण्टी की टिंग-टाँग से। लेखपाल के झोले को ढोती साइकिल, न्यूज़ पेपर लेकर घर-घर जाती साइकिल, बच्चों के स्कूली बैग को संभालती साइकिल। आजादी के बाद से देश मे चली साइकिल, लॉकडाउन में बीमार
एक शाम के लिए|हसती मुस्कराती दिन को गुजारती|कर काम घर पर, बिस्तर सवांरती|दिन भर की आवाजे तंग करती उसे|दिन में तरह-तरह के ब्यंग भरती वह|लौटती दोपहरी, जीवन के नएपन में|हसता खिलखिलाता बचपन लौट आता|बदल कपडे, दे कटोरा, दूधभात भरा हाथ में|चौखट की माथे पर बैठ, मै कई निवाले खाती|माँ अक्सर बैठ आँगन में, पूस
आजाद हुआ कोरोना।कोरोना बढ़ रहा है लॉक डाउन खोला जा रहा है।देश दुनियाँ में मौत के आंकड़े को छुपाया जा रहा है।जग में मानव को जीने का सलीका दिया जा रहा। काश यह छूट देश मे पहले दी गई होती ।आज देश मे एक भी प्रवासी मजदूर न हुआ होता।हर प्रवासी मजदूर कोरोना की शक्ल में नजर आ रहा है।चाहत होती थी दिल्ली, मुम्बई
2013 savita doosara bhag होली के रंग जीवन के संग। सर में पड़ा सूखारंग, नहाते वक्त ही बताता है कि मै कितना चटकीला हूँ। पानी की धार के साथ शरीरके हर अंग मे अपनी दस्तक की खबर के तार को बिछाता। उस समय यह अनुमान लगाना मुश्किलहो जाता है कि यह किसका रंग हैं? फाल्गुन का महिना आधा होचला था। चटकीले रंग फीके हो
बना के काहे पछतायो।काहे मनवा को तूने बनायो, बनाके काहे पछतायो।जहरीले नागन को बीन बजाकर पिटारे में फ़सयो।दौड़ते भागते जानवरो के मुख में लगाम लगायो।जंगल मे देने वाली दहाडो को पिंजरे में फ़सयो।विशाल काय शरीर वाले को अपनी सवारी बनायो।घास फूस पेड़ काट झोपड़ी, तरास पत्थर का महल बनायो।पढ़ लिखकर चला दिमाग और न जा
गरीबी के आलम में,सेवा में,सौ बीगा जमीन के बाद हम गरीब थे| आज सौ गज जमीनमें बनी कोठी, अमीर होने का न्यौता देती हैं|जब पैसो की तंगी थी तब गहनों मालाओ से औरत सजी थी, आज रोल गोल्ड कोअमीरी कहते हैं| जब पीतल की थाली में खाना खाते थे तो गरीब कहे जाते थे| आजप्लास्टिक के बर्तन में खाकर अपने आप को धनी समझ रह
सब कुछ एक पल के लिए।मरना जीना सब हरि विधाता के हाथ मे।यस अपयश कर्म सब मानव के हाथ मे।हवा पानी मिट्टी आँग आसमान सब बिधाता ने अपने मन से बनाया।रेल बस जहाज ट्रक मोटर साइकिल कार मानव अपने कर से बनाया।इन सब की अधिकता विनाश का कारण है पर जननी सबकी घरती है।बीमारी महामारी ज्वाला भूकम्प जलजला तूफ़ान सब से साम
इरादे मजबूत कर लो।उनकी गली से नही गुज़रते, उस गली में हमेशा कांटे बिछे रहते है।लोगों का कहना माना और उस गली से निकलने से बचते रहे। एक दिन उसकी याद खींच ही ले गई काँटो वाली गली मे । गली में घुसते ही पैर में कांटा चुभा, चुभते ही फूल बन गया। दूसरे कदम में काँटा लगा वह भी फूल बन गया। मन मे पता नही कहाँ
वाद को पनपने मत दो।गाँव मे जातिवाद, जिले में गैंगेस्टर, प्रदेश में माववादी, प्रदेश बॉर्डर में नक्सलवादी, देश बॉर्डर में आतंकवादी। इन सब से हारे तो वायरस वाद, इन सब का बाप राजनीतिवाद। यह आम जनता को न जीने देते है न मारने देते है। इन सब का झूठ का पुलिंदा बांधने वाला मीडियावाद, आजकल समाजवाद पर हॉबी है।
कब बड़े हो गए?वह दिन कितने सुन्दर, जिन्हें साथ गुजारा कभी|मिलने की चाहत हैं, मिलेंगे कही यादों भरी राहमें|बहते देखता हैं नदी की, उठती-गिरती तरंगो में |पूछता हूँ पता उन तरंगो से, जो आती हैं कही से|मिलने के अरमान सजते हैं, दिल के किसे कोने में|रखी हैं तस्वीर उनकी, बिछौने के सिरहाने में|देखकर आह भरता हू
हीरा था, हीरा है देश हमारा।जौहरी पहचान न सका, उस हीरे को जो उसके नजरो के सामने था। हीरा की भी गलती थी, वह भी जौहरी से कह न सका, मैं हीरा हूँ। एक दिन काँच समझ कर जौहरी ने फेंक दिया कूड़े के ढेर में। देर सबेर हीरा एक बच्चे के हाथ मे वह भी उसे उठा लाया कूड़े के ढेर से कंचा समझ कर। लोग आज भी कन्फ्यूज है क
पहले के दास आज के संत-योगी आज के संतो व योगी मे बहुत फर्क हैं। पहले का दास राजा के अधीन होकर अपनी रचनाओं से उन्हे सब कुछ बता देते थे। इनाम पाकर अपने आप को धन्य समझते थे। आज के योगी संत, राजा बनकर भी कुछ नहीं हासिल कर पाते। भगवान को, वह अपना आईना समझते हैं, और उसमे अपना बंदरो की तरह बार-बार चेहरा द
यथास्थिती<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata_200728_153725_429.sdoc-->दिल डोले मन डोले, जब मोबाइल में बैटरी लो होले।मैंने खत सजन के नाम लिखा, वो अपना वाट्स अप तो खोलें। पहले प्रेमी, को याद करने के लिए प्रेमिका और गाती थी कि दिल लेके जा रहे हों कैसे जिएंगे हम? और अब
कार्डो के अधीन जिंदगी मानव जीवन जीने के लिए मेहनत करता था| अपना पेटभरने के साथ और दो चार लोगो का पेट भर लेता था| वह अपनी पहचान के लिए कभी सरकार केअधीन नही होता था| नेक ईमानदारी से जीने के लिए किसी प्रमाणपत्र की जरुरत नहीं थी|जब शासन और शासक का दबदबा बना तब से मानव जीवन बदहाल होता जा रहा हैं| लोगो का
नफरत मुझसे है।मेरे चाहने वाले, कभी नज़रों के सामने नही आते, मरने के बाद, मेरे, मुझे कफ़न उढ़ाने चले आते।मेरी खुशियों को टूटा आईना समझकर, चेहरा नही दिखातें।वही मेरे मरने के बाद, मेरी बाह पकड़ कर रोते रहे।जो मेरे जीते जी काँटों में खुशी के फूल खिलाते रहे।मेरे मरने के बाद मुझे गुलाबो की जाल से छुपाते रहे।ज
न भटको अपने नेक इरादों से माला जपू श्याम की राम की धनश्याम की जग मे फैला हैं उजियारा तेरे ही नाम का जप-जप कर जीता हैं जग सारा। बनता हैं तूही सहारा जग के बेसहारों का। माला जपू श्याम की राम की घनश्याम की।रहने दे अमन शांति इस जहां मे जहाँ खेलता हैं बचपन गाती हैं जवानी गुनगुनाता हैं बुढ़ापा। करती हैं श्
हक न सही जीने की आजादी दो।देश की कोहनूर है बेटियाँ, इन्हें चुराया नही जाता।घर की शान है बेटियाँ बचाया और पढ़ाया जाता।वक्त आने पर बेटी किसी और के लिए सजाई जाती।एक और दुनियाँ बसाने के लिए दुल्हन बनाई जाती ।चीख़-चित्कार के झमेलों में क्यो फसाई जाती है बेटीयाँ?नूर और हूर होने के बावजूद क्यो छेड़ी जाती है ब
आओं लौट चले तिनका तिनका जोड़कर, चिड़ियाँ बना लेती हैं बबूर मे घोसला |उड़कर-उड़कर पंख पसार, करती नदी सागर घर आँगन पार |पर ना जाने क्यो? चुँगने उड़ने के बाद, घर को वापस आती हैं |भर चोंच मे दाना लिए ऊँची उड़ान, लौट आती हैं बच्चो के लिए |भोर भई चहचाई चिड़ियाँ अपनी डाली मे, अब तो
गुम हो रहा है।घर की मुंडेर में रखे छप्पर और परछती ओरौती बनकर अब चूती नही।गाँव के बड़े बगीचों में आम, निमोरी, जामुन, महुआ, सबका चूना बंद सा हैं।दो बैलो की जोड़ी, कुसी, हल धोती वाले किसानों के झुंड नही।गाँवो के चारो ओर फैले तालाब, कुआँ, नहरें अब लोगों ने पूर लिया।कोसों दू
हुआ वही।बड़े होने से पहले जो ख्वाब देखा आज भी वही है।माँ की ममता पापा के पैसे ने बचपन से बड़ा किया।गुरु की मेहनत स्कूल कालेज की जगह ने ज्ञान दिया।समाज की ठोकरों परस्थितियों से जीने का सहारा मिला।दो वक्त की रोटी के लिए ज्ञान परदेशी का हुनर बना।हुनर से कमाए चंद सिक्के, खुद की परवरिश के लिए।आँचल तले स्तन
और कितनी दूरपूछू गर एक सवाल माँ से मै कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ?यह शायद ही माँ बता पाए तू कौन हैं, कहाँ से आया हैं?बस वह अपनी व्यथा ही कह सकती, तू कैसे आया हैं?हैं इश्क हमे उनसे बस एक रात का, हम बिस्तर हुए| रात याद हैं मुझे जबसे धड़कने बढ़ी,और तू बढने लगा|हा मेरी कोख मे
थोड़ा अधूरा है।सूरज निकला एक नई सुबह के लिए, चाँद रहा रात में ठंडक के लिए।नीले आसमान में तारे चमके खुद की सुंदरता दिखाने के लिए।नदियाँ बहती है इंसान संग धरती की प्यास बुझाने के लिए।विडम्बना है समाज के लिए यह राज नेता बने कीसके लिए।आत्मनिर्भर बनना आत्मसमान के लिए गोली खाई फाँसी खाई भारत की शान के लिए।
होई पतन विकासके साथ।नेता कहतेहैं भारत का विकास हो रहा हैं।गाँव मे नहर, तालाब, कुआँ सूख रहा हैं।कहने को पैसाबहुत हैं सरकार के पास मे।नेशनल हाईवेके गड्डो से धूल उड़ रहा हैं।पुराने पुलभरभरा जाते हैं रेल की धमक से।मौत जिसकीहोती हैं वह उसकी किस्मत थी।सरकार को यहपता हैं इसपुल से कौन आतंकी गुजरा था?सरकार को
लूटने से बचो।मंदिरों को अक्सर लूटा गया, महलो में क़ब्जे किए।पूंजीपतियों को जमीदारी, गरीबों को गुलाम बनाया।मध्यमवर्ग जब उग्र हुआ तो उन्हें, फाँसी में लटकाया।जाति धर्म रंग भेद-भाव से, मानव मे दो फ़ाक कराया।ऊँच नीच जोड़ करनी संग, भाई भाई को भड़काया।कर ओछी-ओछी राजनीति देश को भृष्ट बनाया।कर बटवारे देश के चार
किन्नर नहीं दीदीहूँ।पो... सरपट रेल चलीछुक-छुक पो... चटाक पटाक ताली बजातीदीदी आई|अरे वो जीजा शाली को ध्यानदो,चुलबुला लड़का बोला किन्नर तोलगती नहीं हो| अरे बेटा किन्नर को छोड़ बुआहूँ तेरी,सामने बैठे युवक का नोच गालक्या सोच रहा हैं?दे-दे दस पाँच रुपया तेरा भलाहोगा, सफर सुहाना होगा| घर जाते ही बी॰बी बच
कलयुगपैदल चल, हल जोत किसान, साइकिल से रफ्तार बढ़ाई।गुरुकुल पढ़, संस्थान बनाई, डिजिटल से रफ्तार बढ़ाई।घोड़ा गाड़ी, बैलगाड़ी, रथ छोड़ ऑटोमेटिक रेल बनाई।रह कच्ची झोपड़ी, तजि माटी, ईट पत्थर से महल बनायो।गोधूलि बिसरायो, खेत ठुकरायो, कम्पनी में काम ब
सच रो रहाशिक्षित प्रशिक्षितधरना और जेल मे।नेता अभिनेतासंसद और बुलट ट्रेन मे।एमेड बीएडतले पकोड़ा खेतवा की मेड़ मे।योगी संत महत्मासेलफ़ी लेवे गंगा की धार मे।बोले जो हककी बात वह भी जिला कारागार मे।बोले जो झूठमूठ वह बैठे सरकारी जैगुआर मे।कर ज़ोर जबरदसतीन्याय को खा जाएंगे।की अगर हककी बात तो लाठी डंडा खा जाएं
धरतीचाँद तारे हवा बादल वर्षा सब ठंडक देते हैं।तालाब कुआँ नल नहर नदी सब प्यास बुझाते है।तपता सूरज दिन दिनभर सबको ताकत देता है।है कितनी प्यारी धरती माँ सबका बोझ उठती है।घेर समुन्दर चारों ओर धरती की प्यास बुझाते। ओढ़ नीला चादर धरती सबकी छत्रछाया बनी।<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/c
हिन्द की शान हैं।हिन्दी हिंदुस्तान की पहचाना हैं, वह हिन्द की रहनुमा हैं।हिन्दी जुबान कही भी बोली जाय, वह हिन्द की शान हैं।कहने को लोग कहते हैं, हिन्द मे अनगिनत भाषाए हैं।उत्तर व मध्य भारत की, हिन्दी को बदनाम करते हैं।संगीत की धुन इंही, तलहटी व पहाड़ियो मे गूँजती हैं।बहती जमुना, बदनाम चंबल की घाटियो
कविता कभी अनकही बातों की अदा हैं कविता, कभी गम की दवा हैं कविता।कमी नही कहने वालों की कोई, वरना जमी पर खुद होती कविता। रात की चाँदनी ने सराहा तो दिन की तपन ने निगल लिया। फूलो की खुशबू को भौरों ने सराहा तो माली ने चुन लिया।कविता को जान समझा तो उसने भी झूठा समझ लिया। गर पता होता ये जुर्म मुझको तो खुद
मम्मी सुबह हों गई।उठो मम्मी अब आंखे खोलो, किचन मे जाकर बर्तन धोलो ।बीती रात एफबी, वट्सेप, ट्यूटर से चाइटिंग करने मे।उठो मम्मी सुबह का नाशता बनाओ, हमे नहलाओं।साफ़सुथरा ड्रेस पहनाओ लांच लगा कर बस्ता सजाओ।पापा भी बेड मे सो रहे हैं, तुम भी अभी अलसाई हों । उठो मम्मी अब आंखे खोलो, किचन मे जाकर बर्तन धोलो
बेटी की जाति नही।सारे जहाँ से अच्छा हिदुस्तान हमारा यह लाईन सुनने में भले ही सुंदर लगती हो। यह लाईन भी दिल को झकझोर देती है कि हमारी संस्कृति सबसे सर्वोपरि है। हमारे यहाँ बेटी की जाति नही होती यह समाज कहता है। लेकिन जैसे ही हमारे समाज में बेटी की जीभ काट दी जाती है, रीढ़ तोड़ दी जाती है, रेपकरके छोड़
युगो-युगो तक टूट कर गिर जाने सेउम्र कम नहीं हो जाती,आसमान मे चमकोगे तारो की तरह।आकार के छोटा बड़ा हो जाने सेकोई भूल नहीं पाता,ईद-बकरीद,पूर्णिमा, करवाचौथ मे चाँद पूजा जाता।एक रंग मे ऊग कर,उसी रंग मे डूबजाने से औकाद कम नहीं होती।बन आंखो की रोशनी सारेजहाँकी, छठ पर्व मे सम्मानित किया जाता।सूख कर,धूल-बनकर
उद्गम कहानी का।कहानी समाज से पैदा होने वाली बीज हैं।जो उन्ही के दरम्यान रहकर उन्हीं के बीच दफन हो जाती हैं।पर अपनी अभिब्यक्ति से एक नए इतिहास की रचना करती हैं, उसे बदलती नहीं हैं उसके अधूरेपन मे भराव करती हैं। अगर वह ऐसा नहीं करती तो समझो, वह बदलाव के नाम पर इतिहास को नहीं, उसके पात्र को नष्ट करती
आशियाना नहीं धोखा हैं.डीडीए फ्लैट, यह नाम अपने आप मे बहुत बड़ा हैं दिल्ली शहर के लिए यह लाईन उस औरत केज़ुबान से सुना जिसने पहली बार सावदा घेवरा के फ्लैटों मे अपने कदमो को रखा थाजिसके पापा ने 1985 मे एक घर होने की चाहत को सजाया था। वह सफदर जंग कालोनी से आएथे उनके पास अपनी कार थी उसमे पाँच लोग सवार थे।
वक्त ने सब कुछ उल्टा कर दिया । इस बार की छठ, टपऔर छत पर।सब कुछ सूना है, नहर,नदी,तालाब।
पेट पराया नहीं।पढ़ना,लिखना,हसना,रोना खेल बना गया हैं।पढ़-लिखकर हर इंसान बेरोजगारबन गया हैं।जनता-जनार्दन नेताओं की फेरेवाली माला हैं।जहाँ देखो वही इंसान के साथगड़बड़ झाला हैं।पेट पराया हो नहीं सकता इसीवजह से अपनाए हैं।वर्ना न जाने कब पेट को भीगहने रख आते।बन सहनशाह सड़कों के,ब्यर्थ मे जीवन को बिताते।बैठ दो
हम धरती पुत्र है।सरकार ने मुँह फेर लिया, किसानों ने बॉर्डर पर डेरा डाल लिया।डेरा डाल, किसानों ने ललकारा है। अब धरती पुत्र ने जवानों का कर विरोध, सरकार से कानून वापस लेने का पैगाम भेजा है। मान लो किसानों का कहना मान लो। फसल को बड़ा कर किसान काटना जानता है।ये तो सरकार है, इसको भी जड़ से गाजर मूली की तरह
और क्या मँगोगे ?महावत से हाथी , तालाब से कमल, किसान से हल,मजदूर से साईकिल, आदिवासियों से तीर कमान, दार्जलिंग से चाय पत्ती, मानव से हाथ, गाँव से लालटेन, आसमान से चाँद तारे रंग चुराए प्रकृति से , यह राजनेता भी कितने अजीब हैं कहते हैं करते नहीं हर चुनाव मे एक नई मुसीबत मांग लेते हैं पूरा नहीं करते।1
शकुन मिलता है।शाम सड़क में खड़ी काम से, हरी थकी औरत। निहारती अपने घर जाने वाली हरी लाल बस को।देख उसे वह भागती कि चढ़ जाऊंगी अपनी बस में।बस भी मजबूर, चढ़ाती वह भी गिनती की सवारी।जहाँ में फैली थी, कोरोना की बीमारी संग महामारी।चढ़ जाती जो वह औरत बस में एक शकुन सा पाती।ले गुलाबी टिकट हो उन्मुक्त सफर में अपनी
कैसे कटी उमरिया?बाजार बसता नहीं उजड़ताजा रहा हैं।ब्यपरियों के बाजारीआकडे सब फेल हैं।मुसीबतों के घेरेमे मंदी से भागती रेल हैं।जहाँ न मिला कट वहीहाइवे जाम हैं।चटक रोशनी ठंड भरेकोहरे से परेशान हैं।ओढ़ लो और गम की रज़ाईआंखो मे नींद नहीं।पढ़ना लिखना ब्यर्थसा लगने लगा,कोतवाली थाना आग मेजलने लगा। किसान भी मैसम
पेड़ ही है, जो अपने ऊपर फल आने के इंतजार में आँधी, बारिश, तूफान सभी को झेलते है। उन्हें यह नही मालूम था कि, फल कोई और तोड़ ले जाएगा। सब कुछ लूट जाने के बाद पत्ते भी साथ छोड़ देते है। वह तो शाख है, जो साथ नही छोड़ती बस कोई कटे और तोड़े न। जमी के अंदर तो जड़े भी महफ़ूज रहती है। पेड़ किसी से कहते नही, बचपन के
कई राते ठंडी बढ़ रही थी पूरा घर रज़ाई मे लिपटा हुआ था घर, आँगन,चौपाल, बरोठ, रज़ाई मे बस सासों का चलनाव घुड़का ही सुनाई देता। नीले आसमान मे आधा चाँद अपनी सफ़ेद रोशनी के साथ घर के बाहरसे गुजरती सड़क को निहार रहा था। सड़क शांत थी दिन की तरह घोड़े के टापूओं की आवाजनहीं थी बैलो की चौरासी नहीं बज रहे थे। मोटर के
किसान हीरा है।किसान हीरा है नगीना है। कभी किसी को लूट कर खाया नही।जमीन जोतकर गाजर मूली शकरकन्द चुकन्दर बोता है।फिर कही जाकर उन्हें खोद लादकर मंडी सुबह लाता है।वह जमीन के अंदर बाहर की समझ से फसल उगाता है।जो बाहर ऊगे उसको काटे चुने जो अंदर उसे उखाड़ते है।धान गेहूँ जौ बाजरा सरसों। तिल तीली अलसी सूखा कर,
सुर संगीतमार काट कर धुन बनाया मानव ने।जिसकी धुन में नाचे अबला नारी।कर सृंगार पहन साड़ी धुन पर नर नाचे।मार मृग की खाल उतार मृदंग बनाया।काट बॉस कर छेद अनेक बासुरी बनाया।घर छोड़ राधा बृज कानन में रास रचाई।कर छेद खाल में हारमोनियम बनाई।बजे जब नागिन लहरा तब हिले कमरिया।सुखा लौकी को मिला बसुुरी बीन बनाया।लै
हवा चली शीतल पवन आती थी।आँधी तूफान लाती थी।अब हवा मे बीमारी हैं।हवा अब वाइरस बन गई हैं।वह अब पेड़, गली से नहीं,लोगो के श्वास नली से निकलती हैं।पतझड़ अब पेड़ो मे नहीं,अब तो पतझड़ इंसानों मे दिखती हैं।कटा पेड़ न्यूज मे दिखता हैं।मरा इंसान कब्रुस्तान या समसान मे दिखता हैं।पेड़ की टहनियाँ सूख कर खाद बनती हैं।
जनता बनी छनौटा कम आमदानी मे जीने वाला आज भी, उन्ही जंग लगी पटरियों मे दौड़ रहा हैं।पहले के नेता कमआमदनी के सागर वाली उफ़ान हुआ करते थे।आज के आईएस सरकार की गुलामी से जनता की गुलामी करना ज्यादा पसंद करते हैं।महफिल मे जमा इंसानों का मनोरंजन करने वाले अभिनेता अपने पहले दो अक्षर खा कर,नेता बन रहे हैं।देश
अंत सही,।ता उम्र आँग की लपटों में जलते रहे, अंत मे राख़ हो गए।ता उम्र पानी की लहरों में नहाते रहे, अंत में जल प्रवाह हो गए। ता उम्र मिट्टी में खेलते रहे अंत हुआ, उसी में दफन हो गए।ता उम्र हवाए घेरती रही, अंत मे वह खुद छोड़कर चली गई।पुनर्जन्म की कहानियां तो अतीत से भी परे होती है।इस जन्म का हमे कुछ पता
बचपन मे स्कूल जाने के लिए, किशोरा अवस्था मे एक मुकाम हासिल करने के लिए। परिवार को चलाने के लिए, ताउम्र घर संभालते रहे, खुद को घुलाते रहे साबुन की तरह।साफ हो गए मृत सैय्या के लिए। आखरी समय मे , खुद को तैयार करते रहे शमशान में जलाने के लिए।<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/
रहा, न कैद में।सुवा कैद में रहकर उड़ान भरने की कोशिश करता है।कबूतर ऊँची उड़ान भरकर कैद में खुद चला आता है।उड़ना दोनो चाहते है इस दुनीयाँ में, आदत जो है उड़ने की। एक बंधन तोड़ना सिखाता है दूसरा बंधन में जुड़ना सिखाता है। वही मुर्गा सभी को जगाने की कोशिश किया जिसकी वजह से उसे हलाल होना पड़ा। कुत्ता वफ़ादार हो
बात और थोड़े दिन की।चुरा लो और क्या चुराओगे?पूछेगीं नज़रे,तो क्या बताओगे?जुबान चुप होगी, होठ सिल जाएंगे।मयते कब्र मे दफ़न हो जाएंगी।अब वक्त शुरू हुआ हैं, विलय का।बैंक ही नहीं सबकुछ विलय हो जाएगा।चलता रहा यू ही कारवां, आने वाली पीढ़ियाँ भी विलय हो जाएंगी।खोजते रहना जाति, धर्म, जब इंसानियत ही विलय हो जाएग
मान लो सरकारदुनियाँ का हर दर्द भुलाया बिसराया जा सकता है।बस अपने दर्द न दे वरना ये दर्द पत्थरों के वार से, ज्यादा घाव देते है, कोमल जिंदगी को नासूर बना देते है।इसमें कोई भी मलहम काम नही करता सिवा आपसी प्यार के। कहने को तो कहते है लोग, जलने से पहले धुँआ उठता जरूर है। लेकिन जब जिंदा लाशें जलती है तो उ
चलो बाग याद आये तो सही जलियावाला बाग के बाद से अब जुबा पर फिर से बाग निकलने लगे है। पेड़ पौधों के न सही महिला पुरषो के झुंड ही सही खुशबू न सही बेरोजगारी की मांग ही सही। पहले इंसान के बगीचे में फल फूल दिखाई देता था। अब होनहार युवा मासूम बचपन दिखाई देता है। पहले का इंसान
विक्रम सुबह की पहली किरणों के साथ झकरकटी में।लगा था पुल में जाम सुबह भी शाम की तरह।कानपुर की विक्रम भी क्या कट मरती है रोड़ में।बच गए तो किस्मत ठीक, ठोक दी बदकिस्मती आपकी।देख के चलबे, सुबह सुबह मरने चले आते कहाँ से।विक्रम में लिखा भी था, किधर को भी मुड़ सकती हूँ।बिठूर 1
पानी को पानी रहने दोनदी अकेले बहकर अनेको घाट बनाती थी। हर घाट निराला होता था।पनघट मे पानी भारी बाल्टी रस्सी से खीच कर औरत सुस्ताती थी।भर मटका कलस फुरसत मे सखी सहेलियों से बतियाती थी, बेटी बहू।चरवाहा बैठ पेड़ की छांव मे मन से गीत गुंगुनाता, गीले होठो से। जानवर तालाबो मे डुबकी लगाते तैरते इतराते ले
याद में।रात हम आपकी याद में सो न सके।करवटे बदलते हुए रात गुजारी।कई बार इस ठंड में,पसीने से तर-बतर हुआ आपकी याद में। न जाने क्यों ऐसा लगा हम आपके करीब होते।कॉल से आपके करीब आने की कोशिश किया, पर आपने करीब आने न दिया। इतना नाराज़ न हो ए मेरी जिंदगी। वरना छूने से पहले बिखर जाऊंगा।आँसू भी झरते रहे तेरी य
टूट ना।सुना था आसमान से तारे टूटते है, अरमान टूटते है, चाहत टूटती है, इरादे टूटते है, दिलों के आईने की तरह रिश्ते टूटते है। थी काली घनी रात जिसमे लेटा था बिस्तर में, नींद टूटी तब ख्याल आया सपने भी इन्ही दरम्यानो में कही टूट जाते है।<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipda
जब भी आँख बंद करता हूँ। वह जंगल, वह कच्ची पक्की सड़क के साथ गेहूँ के खेत, आम के पेड़, पीपल की छांव, याद आती है। मंदिर के आस पास वह दो तीन कमरों वाले माकान सामने से गुजरती रेलगाड़ी की पो...सुनाई देती है। झूले, मौत का कुआँ, सर्कस के टेंट चाट की रेडी याद आती है। दूर तक खाली ऊसर नज़र आता हैं। मंदिर का पूर्व
बचपन बनामबुढ़ापा। नर्म हथेलीमुलायम होठ, सिरमुलायम काया छोट।बिन मांगेहोत मुरादे पूर,ध्यान धरे माता गोदी भरे।पहन निरालेकपड़े पापा संग, गाँवघूम कर बाबा-दादी तंग।खेल कूद बड़ेभये, भाई बहनो केसंग। हस खेल जवानी, बीत गईं बीबी के संग। ये दिन जब, सब बीत गए जीवन के। अंखियन नीरबहे, एक आस की खातिर।कठोर हथेलीसूखे हो
"तुम दिन को दिन कह दोगे, तो रात को हम दोहरायेंगे" आज वही रात अलग होकर नाइट कर्फ्यू बनी। इस गाने की वजह से किसी ज्ञानी मानव ने उपरोक्त गाने के बोल को समझा और नाइट कर्फ्यू को भी कोरोना कर्फ्यू बना दिया। जिसमे मानव के हालात, जज़्बात सब स्थिरता की ओर कदम बढ़ाए हुए है। कोरोना वक्त बे वक्त उन्ही हालात और जज
पानी को पानी रहने दोनदी अकेले बहकर अनेको घाट बनाती थी। हर घाट निराला होता था।पनघट मे पानी भरी बाल्टी रस्सी से खीच कर औरत सुस्ताती थी।भर मटका कलस फुरसत मे सखी सहेलियों से बतियाती थी, बेटी बहू।चरवाहा बैठ पेड़ की छांव मे मन से गीत गुंगुनाता, गीले होठो से। जानवर तालाबो मे डुबकी लगाते तैरते इतराते ले प
जनहित में जारी।भगवान (भगवान---राम, रहीम, अल्ला, मसीहा, गुरु)भ भूमिग गगनव वायुअ आँगन नीरपूर्वजो से सुना था कि सूखा में अनगिनत लोग मरे थे। तब से जल संरक्षण की शुरुवात हुई थी।आज आँखों से देख रहे है। ऑक्सीजन की कमी से लाखों लोग मर चुके है। करोङो मरने के लिए लाईनो में लगे है। वायु संरक्षण की
वर्दी विश्वास मानव मे नही उसकी वर्दी मे होता हैं। कुर्सी का कलर एक हो सकता हैं पर वर्दी का नहीं। कुछ बुद्धजीवियों ने यह तय किया की इस कुर्सी के लिए इस कलर की वर्दी जमेगी। जवान, वकील, डॉक्टर, मास्टर, जज, राजा, नेता, किसान सब की एक वर्दी को उनकी योग्यता के अनुसार बनाया लेकिन आज वह वर्दी भी मायने नहीं
हम जानते है।हम जानते है कि सबकी अपनी जिंदगी है।पर परिवार सबकी बिरीथिंग पावर है।हम जानते है कि समुंदर का पानी पी नही सकते।उसके शैलाब और उफान से दुनियां काँपती है।हम जानते है अकेले जीने में मजा आता है।मरने के बाद का जनशैलाब, खुद की पहचान होती है।हम जानाते है अमीरी जामा बहुत सुंदर होता है।वह सुंदरता भी
इंसान की जुबान से बड़ी उलझन हैं धर्म,जातिवादमे, नहीं हैं उलझन इंसान मे। हरि,अल्लाह ने मिलकर हर वर्ग मे, नर और नार बनाया।जिससे चलता जग संसार हैं,कर, कर्म माया मोह कमाया।फस इंसान जगत मे,कर्म, माया और मोह से ज्ञान बनाया।कर ज्ञान की परिकल्पना से,वेद,रामायण, संविधान बनाया।जब न चलते बना इंसान से,कार्यपालि
हालात बदले हुए है। शाम दिल्ली में हवाएं रूप, बदल बदल कर आ रही थी। हवाओं ने नीम और जामुन के पत्ते फूल गिरा दिए।चौक-चौराहे में लहराते, तिरंगों को फाड़ कर रख दिए।बादलों की गर्जन से, आसमानी बिजली भी चमक गई।काली खाली सड़को में, सायरन एम्बुलेंस के बज रहे।किसी मे कराहती सासे, या कफ़
चुनाव चिन्हजूता।लोकलाज सबत्याग, जूता निशानबनाया।झाड़ू से सफाईकर, बाद मे जूतादीना।पढ़ लिख करमति बौराई, कौन इन्हेसमझाए?लोक सभा चुनावसे पहले जूता निशान बनाए।हरि बैल,खेत-किसान, खत का निशान मिटाया।वीर सपूतोकी फाँसी वाली रस्सी को ठुकराया।उन वीरांगनाओको भूल गए जिसने खट्टे दाँत किये।दिल्ली कोबना के चमचम, पूरे
डिजिटल का धोखा2 जी में चूहा मरे बीमारी प्लेग की।3 जी 4जी मे पंक्षी मरे बीमारी बर्ड फ्लू की।5 जी मे इंसान मरे बीमारी कोरोना की।जब 7 जी आएगा नदी सागर भी सूख जाएंगे बीमारी सूखा की होगी।इतना भी डिजिटल में न घुसो की बाहर निकल ही न पाओ।<!--/data/user/0/com.samsung.android.app.notes/files/clipdata/clipdata
एक पल का शकजो खुशी थी मेरे पास वह भी तुमने छीन ली।अब क्या बचा मेरे पास जो सवाल पूछती हो।देखती थी अपना चेहरा मेरे चेहरे मे तब मै आईना था।वक्त बे वक्त मौसम की तरह बदलने का नाम दिया।नहीं बदला तो पत्थर दिल मान लिया जाता।मोम भी इतनी आसानी से नहीं पिघलती, उसे भी आग पिघलाती हैं।बाद मे यही कहते हैं कि जलने
एक रात की नींद सावन के फुहारों से भींगी मिट्टी, मिट्टी की भीनी-भीनी खुशबू मे सड़क के किनारे एक लड़की, नमी व मुलायम मिट्टी में लकड़ी से आकृति उकेरने का प्रयास कर रही थी। बादल सूर्ख काले दिखतें मनो अभी बिखर पड़ेगें। यह ख़याल ही था। दोपहर की अजान गलियों में गूँज चुकी थी। सभी ज़नाब अपने सरों में रखी असंख्य
गुलामी की जंजीरगुलामी की जंजीरों को न तोड़ पाए हैं, न तोड़ पाएंगे।पहले धरती गुलामी की जंजीरों से जकड़ी जा रही थी।और कोई न मिली फसल उगाने को तो नील उगाई जा रही थी।कोई उस वक्त को समझ न पाया, कोई बन्दी बनकर , कारागार की काल कोठरी में रात गुजर कर बहन बेटियों को बन्दी बना लेते, या प्यार के जाल में फसा कर अ
<p>वर्षा क्या आई? <br> <br> वर्षा क्या आई? दिल्ली की सड़के धसने लगी।<br> <br> गाँव-कालोनी बाजार चौक-च
कोरोना फैला है सारे संसार मा। गले मिलने की बात छोड़ो हाथ का धप्पा भी न दे किसी भी बात मा। न बस चले न रेल चले, न चले कलकारखाने लोग निकल पड़े है अपने गांव को। सब खो गई उम्मीदे मानव के अंदर की।गली चौक चौबारे खत्म हो गए पब बियर-बार लकड़ी ताश के घेरे। पड़े हुए कोरोना के डर से परदेशी प्रदेश मा। कोरोना फैला
<p>मैट्रो <br> <br> कभी आसमां के तले, कभी भूगर्भ की हमराही मैट्रो।<br> <br> बड़ी सुंदर सी आवाज और चमक
एक नज़र इधर भी आँख से नींद बनी,पेट से खेत बना,बच्चे से प्यार बना। जीवन साथी से जीना। क्या रखा हैं इस धनदौलत मे?ये तो हैं मानव के मन को गुमराह करने का बहाना।पूज लो माँ-बाप को जीससे बनी ये काया।क्यों फिरता हैं जग मे, बंदा तू मारा-मारा?दिल, दिमाग, मन चंचल, इससे सब कोई हारा।
<p>दफ्तर के चक्कर <br> <br> यहाँ भटकती वहाँ भटकती जहां को कहते वही भटकती। <br> <br> लिए हाथ मे एक रं
काटे नहीं कटते ये दिन ये रातकह दी है जो घर मे रहने की बातलो आज मैं कहता हूँकोरोना नही यह तो महामारी है।कोई नहीं है बस कोरोना कोरोना कहनी थी तुमसे जो दिल की बातजब तक रहे कोरोना घर मे ही रहना है,कोरोना एक महामारी बन गई है।कैसी हवा है, जहरीली जहरीलीआज सारे जहाँ, में कोरोना कोरोनासारा नज़ारा, नया नयादिल
<p>कुर्सी का टोटका।<br> <br> बनी भी कुर्सी, लकड़ी काठ लोहा प्लस्टिक की।<br> <br> राजगद्दी, जयमाला कुर
दबी जुबानपास होगा सबकुछ पास होगा चाहत जो इतनी है।दबीजुबा से कुछ कह न सके अपनो से।लिखने की वर्तनी का कुछ असर नही कलम जो इतना डरती है।राहुल बजाज की अभिब्यक्ति से पता चला, इलेक्ट्रिक कार तो अभी सपना है।सरकार की चाहत को रख पास में अपनी ब्यथा को कहते है।तीन तलाक भी कानून बन गया इज्जत और आबरू का।शिक्षा लट
<p>कैसे जिए?<br> <br> पेड़ काट पिलर बनाए, अब धूल कौन उड़ाए?<br> <br> बाग काट महल बनाए, अब हवा कहाँ स
कैसे कहाँ से आया कोरोना..? अपने भी अपनो से दूर रहने लगे। ये जो कड़ी है, मुश्किल की घड़ी है। सामाजिक दूरी सहनी पड़ी है, बंद है हर कोई, अपने घरों में। कैसे कहाँ से आया कोरोना..? बहती जहरीली हवाओ के डर से, सभी के मुँह में मास्क लगने लगे। एक दूजे को हक़ करने से डरने लगे, कैसे कहाँ से आया कोरोना..? ख़ोज करने
<p>गोवा से आई हो।</p> <p>तू बड़ी नमकीन है, गोवा के समंदर बिच पर नहाई है।</p> <p>अभी कल ही फ्लाईट से द
सविता अपने बचपन की सारी खुशीयों को अपने माँबाप के साथ नही बाँट पाई। गाँव को समझ नही पाई, चाँद तारों की छाव में उनकीठंडक को भाँप नही पाई, चन्द सवाल ही पूछ पाती कि चंदा मामा कितनीदूर है? गोरी कलाइयों में बंधे दूधिया तागे कमजोर पड़ गए थे| पैरो में पड़ी पाज़ेब की खनक छनक से अपने नानी नाना के दिल को मोहने ल
<p>पहाड़ो में आत्मा रहती है।<br> <br> सुना है वादियों में जान रहा करती है।<br> <br> पहाड़ो की वादियाँ
दो घूट शराब के, दो पैक शराब के।जब दिन अच्छे थे तो, शराब को बुरा कहते थे।आज दिन बुरे है तो, शराब को अच्छा कहते है।वाह कोरोना तूने,शराबियों की जमात दिखा दी।मैख़ाने के नाम से नही, अब हमखाने से जानेंगे।शराब लोग गम में पीते थे, आज साबित हो गया।लाइन को गाली देना, गस खाकर गिर जाना, यह सब दिखावा बन गया। अब प
<p>लक्ष्मी पुत्र पधारे है।<br> <br> घरती पुत्र के जाने से, लक्ष्मी पुत्र पधारे है।<br> <br> खाने पीन
कैसे समझाऊ?देश विकाश कर रहा है, सोना आसमान छू रहा।किसी का आँख मुँह तिरक्षा, यह सेल्फी कह रहा।पानी जमीन का घटा, पानी चाँद की गोद मे दिख रहा।मानव कर प्रकृति को बर्बाद, रहने चाँद में जा रहा।दिल्ली का जाम झेला नही जाता, हैलीकॉप्टर की बात सुना रहा।कर आयुष्मनभारत का निर्माण, मना आँख के ऑपरेशन को कर रहा। क
न छेड़ो प्रकृति को आज भी हवाए अपने इशारे से बादलो को मोड़ लाती हैं। गर्म सूरज को भी पर्दे की ओट मे लाकर एक ठंडा एहसास जगाती हैं। रात की ठंड मे छुपता चाँद कोहरे की पर्त मे, उस पर्त को भी ये उड़ा ले जाती हैं। प्रकृति आज भी अपने वजूद और जज़बातो को समझती हैं हर मौसम को।पर मानव उनसे कर खेलवाड़, अपने लिए ही मु
जीवन पिरामिड की तरह! न भला हैं, न बुरा हैं कोई।हस कर जीवन जीने की कला हैं सब मे।रम गए हैं,कदम किसी जगह मे पिरामिड की तरह।यह चतुर दुनियाँ वाले सब जानते हैं।बोलते भी हैं, अपनों से, मै तुम्हारा कौन हूँ?यह ज़िंदगी भी सवालियाँ निशान बन गई हैं ।इन्ही सवालो को खोजती रह गई हैं ज़िंदगी भवसागरों मे।मिलता हैं टू
बात और थोड़े दिन की।चुरा लो और क्या चुराओगे?पूछेगीं नज़रे,तो क्या बताओगे?जुबान चुप होगी, होठ सिल जाएंगे।मयते कब्र मे दफ़न हो जाएंगी।अब वक्त शुरू हुआ हैं, विलय का।बैंक ही नहीं सबकुछ विलय हो जाएगा।चलता रहा यू ही कारवां, आने वाली पीढ़ियाँ भी विलय हो जाएंगी।खोजते रहना जाति, धर्म, जब इंसानियत ही विलय हो जाएग
सच कहाँ हैं?कब्रिस्तानमे राख़ नहीं मिलती, मिट्टी-मिट्टी मे दफन हो जाती हैं लाशे।समशान मे हैंराख़,एक चिंगारी सेआग लगकर शांत हो जाती चिताए। लौट जाते हैंवह लोग, ख्वाबोंके समुंदर मे भ्रमित गोते लगाते हुए।दफन हो जाना, भसम हो जाना,ताबबूतों मे सिमट कर रह जाना अंत हैं।यह सारा दृश्य, आंखो की पालको को भिंगोते ह
आँख में उम्र कैद बल्ब की रोशनी लकड़ी की मेज मे पड़ रही थी, मेज के ऊपर एक किताब जिसके मुख्यप्रष्ठ मे उभरता शब्द शहर की तरफ ले गया शहर नदी के किनारे बसा परछाई को उसके पानी मे पाता हैं| दिन की रोशनी और रात की रोशनी मे अलग-अलग दिखता| इन दोनों की परछाई मे एक बस्ती शामिल थी जिसकी परछाई नदी मे डूबी रहती|
पो कूहूँ... थमा थमा सा है।शाम को सजना रात दो पथ पर भागना सुबह का थकना सब रूका रुका सा है।आगे से पकड़ना पीछे से पकड़ना बीच में आराम करना एक रात के लिए।उसका चलना भागना इतराना कूहक़ी मारना ठिठक कर चलना उसकी आदत है।सदियों से आजाद थी कभी न रुकी पर ना जाने क्यों उन्ही रास्तो में जमी जमी सी है।उसके ऊपर सोना क
वादे रहे। दर्दे दिल की दवा देंगे। चुनाव आने से पहले हवा देंगे। नौकरी देंगे, लैपटॉप मोबाईल देंगे। किसानों का साथ देंगे, फसल का रेट देंगे। वोट लेने के बाद, गली मुहल्ले से मुंह मोड़ लेंगे। याद
शहरी जिंदगी। शहरी आशियाने को, टूट कर बिखरते देखा। बुलडोज़र को, आशियानों में रौंदते देखा। चीख पुकार के साथ, आँखों से नीर बहते देखा। कई दशकों से संजोए सपनो को, उखड़ते देखा। चन्द कागज़ी टुकड़ो से लोगो
नब्ज़ से क्या जाने कोई? नब्जिया वैद क्या जाने? मैं तो प्रेम का भूखा हूँ। बचपन खेत बरियाँ में सोता,आँख आंसू से भरकर। तकता माँ के आने का रास्ता, चौखट में सर रखकर। नब्जिया वैद क्या जाने? मैं तो प्रेम
कत्ल हुआ। नजरें कत्ल करती रही, दिल सहता रहा। खंजर और कोई लिए, दिल को छेदता रहा। लहूँ बहता रहा, उसकी आखरी सास तक। जाने अनजाने में, करीब गया साए की तरह। वह साया भी काम न आया, कफ़न बन गया। हवाओं ने
कत्ल हुआ। नजरें कत्ल करती रही, दिल सहता रहा। खंजर और कोई लिए, दिल को छेदता रहा। लहूँ बहता रहा, उसकी आखरी सास तक। जाने अनजाने में, करीब गया साए की तरह। वह साया भी काम न आया, कफ़न बन गया। हवाओं ने
चुनावी बयार बयार पश्चिम से पूरब की ओर चल पड़ी है। अब खेल होई या खदेड़ा, ईवीएम बटन से। बेटी हूँ लड़सक्ति हूँ, up आधी आबादी से। बहू, बेटी, बाबा, चाचा, भतीजे बने है नेता। परिवार दांव लगाए, टिकट मिले बे