उधर भी है क्या?
राह में चलने वाला हर मुसाफ़िर, हम रही नही होता।
कातिल, लूटरे, जालसाज, चालबाज, बहुरुपिए भी है।
ये जो तड़प है, रुसवाई-बेचैनी इधर है, उधर भी है क्या?
ये जो नींदों के ख़्वाब अधूरे से है, यह उधर भी है क्या?
ये जो ज्योति जली है प्रेम की इधर, उधर भी है क्या?
ये जो लूटी है जिंदगी एक दीदार के लिए कल इधर।
ये जो बेरितू बरसात हुई है इधर, उधर भी है क्या?
ये जो बे कसूर कत्ल हुए है इधर, उधर भी है क्या?
ये जो जालसाज फसाए है इधर, उधर भी है क्या?
ये जो छुपाए है चेहरे बहुरुपिए इधर, उधर भी है क्या?
तोड़ दो इन सारे भरम को, जो सदियों से सजाए हुए है।
बदल दो अब जीने के इरादे, इस क़लयुगी जमाने मे।
अपनो को छोड़कर, गैरो को सीने से लगाए हुए है।
राह बेरोजगारी की सही, तमन्नाओं के फूल खिलाए हुए है।
ये जो कत्ल सरेआम होने लगे है इधर, उधर भी है क्या?
ये जो खामोशी छाई है इधर, उधर भी है क्या?