बदरंग इमारत।
चारो तरफ से घिरी दीवार उसके अंदर तीन कमरों के साथ चौड़ा लंबा बरामदा। बरामदे से सटे बाथरूम और ट्वायलेट,सब में दरवाजे लगे हुए। यह जगह की पहली ठोस पहचान थी, इस जगह में नमकीन पानी देने वाला जमीनी नल, दरवाज़े पर खड़ा कीकर का पेड़। लाल रंग रोगन से सजी दिवारे यहां की पहचान थी। इन दिनों अगर कोई शहरी अधिकारी, सरकारी कर्मचारी, नेता आते वह भी इसी परिसर में पहले दाखिल होते। जैसे उस वक्त की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित जी इस परिसर में दाखिल हुई थी। बदलते सावदा घेवरा ने इस जगह को कई नाम दिए। स्लम अधिकारियों का दफ्तर, दवाखाना, डिस्पेंसरी, एमसीडी कर्मचारियों का ठिकाना, और अब गंजेड़ी,भंगेड़ी,नशेडियो का ठिकाना, स्कूली टीचरों का दो फूक(कश) वाला कोना।
इस परिसर में आकर न जाने कितने बुजुर्गो ने अपनी जिंदगी की आखिरी सांसों को मजबूत और स्वस्थ किया। शरीर को सही रखने के लिए दवाओं का पुलिंदा बनवाते हुए इसे आखिरी दफा अलविदा कह गए। उनके लिए यह एक ख़ूबसूरत जगह थी जहां आकर अपना बीपी और शुगर लेवल चेक करवाते थे। हल्की फुल्की हड्डियों के दर्द के लिए गर्म पट्टी, शरीर में रगड़ने के लिए मलहम बाम ले जाते थे। तीनो कमरे गुलजार रहा करते एक में डॉक्टर, दूसरे में मरीजों की पर्ची, सर तीसरे वाले में दवाओं की लाईन लगे मरीज, दवाओं की गंध रहती। बरामदे में बैठे मरीज अपने नंबर आने के इंतजार में।
शिशुओं का दिन चिन्हित था। बुधवार को सारे छोटे बच्चे और बच्चियां पोलियो की दवा और टीकाकरण के लिए अपनी माताओं के साथ आते। आज वही बच्चे खेलने घूमने चले आते है। कुछ नशे की गिरफ्त में आकर अपने शरीर और नस्ल दोनो को बर्बाद कर लिया।
जब यहां चटाई के घर थे। पहला पक्का मकान चिन्हित हुआ हो या न हुआ हो। यह जगह चिन्हित थी जिसकी बनावट को किसी और खाली जमीन में नही बनाया जा सकता था। यह जगह अपने आप में बहुत बड़ी, बाकी की चिन्हित जगाहे 12 मीटर और 18 मीटर, जिसमे दिल्ली शहर से विस्थापित लोगों ने अपना आशियाना बनाया। बाकी की खाली जमीन सिर्फ नाम से चिन्हित थी।अपने आकार से आज भी चिन्हित नही हो पाई। उन खाली जगहों में राजस्थानी गायों का चारागाह बन गया। उनको चराने वाले ने अपनी काबिले को ठहरने के लिए यहां अपने डेरे जमा लिए। जिनमे उनकी बच्ची और बीबियां राजस्थानी लिबास में घांघरा चोली, आधी हाथ भरी चूड़ियां। पैरो में घेड़ुआ। मोटी मोटी बाजूबंद। वही पुरुष सर में मोटी पगड़ी, पांच हाथ की सफेद मर्दाना धोती बदन में ढाई से तीन मीटर की कुर्ता बंडी। चेहरे में लालिमा रंग सांवला कद लम्बा, मूछों में ताव देने से बनी नुकीली कोर, हाथ में तीन से चार फीट की लाठी। यह सब सावदा घेवरा के बने नक्शे में फिक्स नही थे। नक्शे में अस्पताल, कालेज, डाकघर, मंदिर, बैंक, चौकी सब जमीन में गड़े नीले बोर्ड में ऊकरे सफेद पेंट से शब्द दर्ज थे। वह सब गायब हो गए जो बचे उनके बोर्ड को जंग खा गई, उनमें दर्ज शब्द नमकीन पानी और बारिश की बौछार, खुली धूप और खुली हवाओं ने उनके रंगो को उड़ा दिया।
यही दशा अब इस इमारत की हो गई है। खुली धूप, खुली हवा, खुली बारिश की बौछारों ने इस ईमारत का रंग उड़ा कर कमजोर कर दिया, उसकी ऊपरी और अंदरूनी ताकत को झाड़ दिया। इस इमारत की कलाई खुल चुकी, दरवाजे अकड़ गए। उनकी कुंडियों को जंग ने निगल लिया, टॉयलेट और बाथरूम बेदम हो गए। जिसमे अब लट्ठ वाले झाड़ूओ और तशलो का बसेरा बन गया। बिजली की रोशनी अब इनकमरो में आती नही। मानव निर्मित हर सुंदरता बे पर्दा हो गई। इसकी उभरी हुई एक एक ईट को गिन सकते हो। ऊपर रखी पानी की प्लास्टिक की काली वाली टंकी मुंह की खा रही है। खिड़की की खिड़कियां गायब। जंगले जंग से लड़ रहे। आरपार करती हवाएं आ और जा रही है। इस परिसर में खड़े पेड़ न जाने कितनी बार अपने रंग को बदल चुके और आशा के अनगिनत फूल फल, फल फूल चुके और फलते फूलते रहेंगे। इस परिसर में जब भी निगाहें जाती। मानव निर्मित हर वह कोना कमज़ोर नज़र आता। वही प्रकृति की दी हुई धरोहर मौसम की मार खाने बाद। वह मौसम के हिसाब से हरी भरी हो जाती। यह देख लोग कहते यह कुदरत का करिश्मा है। एक रंगीन हो जाती और दूसरी बदरंग और कमजोर हो जाती है।