शहर हमने बनाया है।
कमआमदनी में जीना चना के हरे साग की तरह है।
उसके खेत में उगने के साथ खोटने से लेकर हल्का बड़े होने पर उसे काट कर जानवरो को खिलाना,बड़े में खेत से उखाड़ कर। खलियान में बैलो से रौंदई कर उसे घर में लाकर। उसका दियूल, दाल, बूंजा, सतुआ, बेसन तयार कर बाजार की खूबसूरत मिठाई बूंदी, लड्डू शामिल कर सजाना, बेचना उसे खाना और सेहत बनाना यह कम आमदनी में जीने के आंतरिक रिसोर्स का जीता जागता प्रतिमा स्वरूप उदाहरण है।
बड़े शहर के किसी कोने में बसना, उस कोने में बसकर शहर को सुंदर बनाना, सड़क की चौड़ीकरण से लेकर संसद भवन के नव निर्माण से उसकी पोताई रंगरोगन करना। पेपर की छपाई से लेकर बुक की बाइंडीग तक।
मखमली रजाई की धुनकाई से लेकर उसकी सुई धागे की तगाई तक। कलकारखाने के छोटे पुर्जे से बड़ी थार के निर्माण तक। गांव के खेत में फेकी गई बीज से लेकर शहर की सब्जी वाली रेडी तक बिकने वाली समानों अमीरों तक पहुंचा कर अपनी जिंदगी को झुग्गी झोपड़ी, किराए की जिंदगी में या फिर सावदा घेवरा कालोनी के बारह से अठारह मीटर के जैसे आशियाने में अपना जीवन गुजार देते है।
अपने हुनर को सीने और हाथों में लिए गांव और शहर रूपी जात (चक्की) में अपने आप को पीसते हुए एक सुनहरे वक्त को गुलामी की तरह जीते हुए अपनी और अपने परिवार की परवरिश करते हुए। अस्पतालों की लाइन में लगने वाली भीड़ का हिस्सा बनकर यह सोचते हुए हम शहर पढ़ने आये थे। कमाने आए थे। सपनो को उड़ान देने आये थे। नए शहर का निर्माण करने आये थे। सामने खिड़की जिसमे आपका नाम, उम्र और बीमारी को पूछकर आपको एक पर्ची थमा दी जाती है उसको हाथ में मोड़ते हुए या फिर प्लास्टिक की पन्नी में हर बीमारी की जांच वाली रसीदे और दवाओं को लेकर हम अपने जीवन और हुनर को खो देते है। शहर के उस कोने में रहकर जिसका न कोई वजूद है और न कोई नाम।बदनामी के दाग के शिवा।