वह नहीं दिखते।
बदलते मौसम की रवानगी, अपने साथ अपनी जरूरत की समाने साथ लेकर आते। पीने के लिए ओस की बूंद, नहाने के लिए हिमपात, ओढ़ने के लिए कुहासे की चादर, कभी वह अपने अस्त और उदय के समय में बदलाव गढ़ देते। उसकी गिरफ्त से सूर्य पार ना पाता धूल और धुंध किसी न किसी बहाने उस पर काबू पाने के बहाने ढूंढते।
वक्त का तकाज़ा इतना हो गया रात बड़ी और दिन छोटे होने का आभास ज्यों ही नजरों के फेरे में पड़ते, शरीर के तापमान को स्वेटर, कान में बंधे मफ़लर, दूर गली चौक चौराहे के कोने में जलती आंग संभालती, सुलगती राख़ के ढेर के समीप बैठे गली के रखवाली करने वाले। उनके शरीर में राख़ की लेप तैयार मिलती, कनपटी संग कान ज़मीन की तासीर से लिपटे पड़े रहते। जब तक किसी रही के कदमों कि आहट कानो से ना टकराती।
आने जाने वाले रही जिनका बसेरा सावदा घेवरा जिसकी पहचान एफसीआई, इंडियनऑयल प्लांट,
हरियाणा की शरहद को छूने वाला बहादुरगढ़ उसके आसपास बसे ऊंचे ऊंचे कलकारखानों की चिमनी से निकलने वाला धुआं उखड़ी पक्की सड़को से निकली उड़ने वाली धूल धक्कड़ ने एक ऊंची परत बनाई। उसके आवरण में सावदा की शरहद बने पेड़, दूर तक फैले खाली खेत, सावदा घेवरा कालोनी से वह सब अब नहीं दिखते। वह भी इसी परत के पीछे छुप गये।
आता मौसम जाता मौसम परिस्थितियों की जाल बुनकर सावदा वासियों को अपना अनुभव दे जाता। नई बीमारी, उनको ठीक करने वाले नुस्खे अदरख, तुलसी, सोंठ वाली ताजी कड़क चाय। गर्म पानी में उबली गिलोय का सूप, कान के कोने में छिपता मैल, खुरदरी फटी बिवाईयां, छिप जाती ज़ुराब, ऊनी गर्म कपड़ो में। नर्म हवाओ से उधड़ी होठों की पपड़ियां छिप जाती लिब्लोस से।