मेरे गांव में एक हमारे पड़ोसी हैं. उनके चार बच्चे हैं, प्रदुम्न, भीष्म, द्रोणाचार्य और
आशुतोष. इनके चाचा का नाम अश्वत्थामा है. ये नाम रखने वाले हमारे पड़ोसी ने
अश्वत्थामा को द्रोणाचार्य का चाचा बना दिया. अब इतना तो आप सभी महाभारत के
पात्रों के बारे में जानते ही होंगे कि मुझे अब इन पात्रों का विश्लेषण नहीं करना
पड़े. लेकिन महापुरूषों के नाम पर नामकरण करने की लालसा ने इनके ‘ज्ञान’ को जगजाहिर कर दिया. मैं
ये तो नहीं कह रहा हूं कि ठीक इसी तरह सियासी दल भी महापुरूषों के विषय में
अज्ञानी हैं. लेकिन ये जरूर है कि सियासत में सबकुछ टूल की तरह होता है. जाति, धर्म, क्षेत्र, ये वाद, वो वाद, ये भक्ति वो भक्ति….. सबकुछ सियासी टूल! इसी
सियासत में दलों ने जब भगवान को नहीं छोड़ा तो महापुरूषों को कैसे छोड़ते? महापुरूषों का सियासी
दलों ने अपने इच्छानुसार प्रयोग किया. मैं मानता हूं कि सियासत को जनउपयोगी बनाने
के लिए महापुरूषों के जीवन का अनुसरण करना चाहिए, इससे शासन करने के
दौरान नीति निर्धारण में एक रोड मैप बनता है. यहां तक तो सब सही है लेकिन सियासत
इतनी सीधी होती कहां है? खैर चलिए मुख्य विषय पर कि आखिर मैंने इस मुद्दे को छेड़ा क्यों है? प्रधानमंत्री नरेंद्र
मोदी ने आंबेडकर राष्ट्रीय स्मारक के शिलान्यास के मौके पर बेहद उम्दा बात कही.
मोदी ने कहा, ‘आंबेडकर को सिर्फ दलितों का मसीहा कहना उनका अपमान है. वो हर पीड़ित और वंचित
की आवाज़ हैं. हमें उन्हें अपनी सीमाओं के भीतर कैद नहीं करना चाहिए. जिस तरह से
दुनिया मार्टिन लुथर किंग को देखती है, वैसे ही बाबा साहेब को देखना चाहिए. हो सकता है कि पीएम मोदी का आंबेडकर प्रेम, बीजेपी का ये प्रेम
सियासी समझ का नतीजा हो, मैं इससे इनकार नहीं करता, लेकिन बाबा साहेब आंबेडकर को किसी खास समुदाय का हितैषी, या किसी खास दल का
कॉपी राइट कैसे बनाया जा सकता है? आंबेडकर की चर्चा दूसरे दल क्यों नहीं कर सकते हैं? बाबा साहेब आंबेडकर के
नाम पर स्मारक बनाना, पार्क बनाना, उनकी नीतियों पर काम करने का अधिकार सभी दलों को है. इस पर किसी की कॉपी राइट
नहीं होनी चाहिए. बाबा साहेब को जातीय अस्मिता बनाना कहीं से भी उचित नहीं ठहराया
जा सकता है, इससे बुराई की शुरुआत तब और होती है जब सत्ता के लिए इन महापुरूषों को सियासी
टूल बनाया जाता है. इस दल दल में करीब सभी दल हैं. महात्मा गांधी, सरदार पटेल, लाल बहादुर शास्त्री, सुभाष चंद्र बोष पर
कांग्रेस कॉपी राइट समझती है. हाल के दो सालों में इस पर कितना विवाद हुआ है अब
बृहद रूप से मैं क्या बताउं? कांग्रेस संसद से सड़क तक आरोप लगाती है कि बीजेपी हमारी विरासत को हड़प रही
है. क्या महात्मा गांधी, सरदार पटेल जैसे महापुरूषों पर वर्तमान कांग्रेस का कॉपी राइट कैसे हो गया? ये महापुरूष दलगत कैसे
हो गये. इनके विचारों को दूसरे दल यदि अपनाते हैं(सच्चे मन से) तो इसे विरासत
हड़पना कैसे कहेंगे, इसे तो आगे बढ़कर स्वीकार करना चाहिए, तारीफ करनी चाहिए. बिहार
चुनाव के दौरान अशोक से लेकर पता नहीं कौन-कौन जातीय गोलबंदी के लिए टूल की तरह
उपयोग किये जाने लगे. मैं तो यूपी से हूं भाई हमारे यहां तो सरकार बदलती है तो
जिले और पार्क के नाम तुरंत बदलने शुरू हो जाते हैं, हां यहां भी नामकरण
महापुरूषों के नाम पर होता है. दोनों ही दल खास महापुरूषों के ठेकेदार बन जाते
हैं. खैर.. इसीलिए मैं अपने पड़ोसी का उदाहरण दिया था इन्हें सिर्फ नाम रखना होता
है अच्छा दिखने वाला, आचरण वैसा करने से परहेज होता है. मुझे पता है कि आज यूं ही बाबा साहेब के
भक्त मोदी जी नहीं बने हैं. जरा वक्त के पहिये को पीछे ले चलिए बाबा साहेब भीमराव
आंबेडकर की 124वीं जयंती मनाने में बीजेपी और संघ परिवार इस बार सबसे आगे दिखाई दिये. इसी
दिन बीजेपी ने बिहार में अपने चुनाव अभियान की शुरुआत भी की. जयंती पर संघ के
मुखपत्र पांचजन्य का विशेष संस्करण इसी रणनीति का एक हिस्सा था. लोकसभा चुनाव में
आरक्षित सीटों पर बीजेपी की भारी जीत, महाराष्ट्र, हरियाणा में दलितों का बीजेपी पर भरोसा करना… एक चरणबद्ध सफलता है
इसी क्रम में पीएम मोदी ने आज खुद को आंबेडकर का भक्त बताया है. आपको याद हो तो
संघ ने इसके लिए नारा दिया है- एक गांव में एक कुआं, एक मंदिर और एक
श्मशान. हमें इसकी तारीफ करनी चाहिए. देखिए महापुरूषों पर किसी की कॉपी राइट नहीं
होनी चाहिए, मुद्दा ये हो कि इन महापुरूषों के विचारों का सही अनुकरण कौन कर रहा है? यूपी में आंबेडकर की
ठेकेदारी जिनके पास है उनको भी सोचना होगा कि सबसे अधिक दलित सांसद उसी दल के पास
हैं जिसको मनुवादी बताती हैं बहन जी. राजस्थान, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, हरियाणा के दलितों में
बीजेपी का जनाधार लगातार बढ़ा है. तो उसी क्रम को आगे बढ़ाने में पीएम मोदी जुटे
हैं. खैर.. मेरा तो सिर्फ इतना कहना है कि महापुरूषों को जन जन का बनने दीजिए, आंबेडकर, मजदूर चाहे सवर्ण हो या
पिछड़ा या दलित सबके हैं. इसे किसी खास अस्मिता ने ना जोड़ें. और हां राजनीतिक
दलों से अनुरोध है कि महापुरूषों को खेमेबाजी में फंसाने के बजाए उनके विचारों को
समझें और उस पर आगे बढ़ें अन्यथा आने वाली पीढ़ी भी उन्हें ऐसे ही याद करेगी जैसे
अपने पड़ोसी को अभी हम याद कर रहे हैं.
लेखक : प्रकाश नारायण सिंह, कंटेंट एडिटर एबीपी न्यूज