भारतीय पंचांग पद्धति में प्रतिवर्ष सौर पौष मास को खरमास कहते हैं। इसे मलमास
काला महीना भी कहा जाता है। इस महीने का आरंभ सामान्यत: 16 दिसम्बर से होता है और
ठीक मकर संक्रांति को खरमास की समाप्ति होती है। खर मास के दौरान हिन्दू जगत में
कोई भी धार्मिक कृत्य और शुभ मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं। इसके अलावा यह
महीना अनेक प्रकार के घरेलू और पारम्परिक शुभ कार्यों की चर्चाओं के लिए भी वर्जित
है। इस वर्ष खरमास 16 दिसम्बर 2015 से आरम्भ होगा और 14 जनवरी 2016 को मलमास यानी
खरमास की समाप्ति होगी। खरमास में सभी प्रकार के हवन, विवाह चर्चा, गृह प्रवेश, भूमि पूजन, द्विरागमन, यज्ञोपवीत, विवाह या अन्य हवन कर्मकांड आदि तक
का निषेध है। सिर्फ भागवत कथा या रामायण कथा का सामूहिक श्रवण ही खर मास में किया
जाता है।
ब्रह्म पुराण के अनुसार खरमास में मृत्यु को प्राप्त व्यक्ति नर्क का भागी
होता है। अर्थात चाहे व्यक्ति अल्पायु हो या दीर्घायु अगर वह पौष के अन्तर्गत
खरमास यानी मलमास की अवधि में अपने प्राण त्याग रहा है तो निश्चित रूप से उसका
इहलोक और परलोक नर्क के द्वार की तरफ खुलता है। इस बात की पुष्टि महाभारत में होती
है जब खरमास के अन्दर अर्जुन ने भीष्म पितामह को धर्म युद्ध में बाणों की शैया से
वेध दिया था। सैकड़ों बाणों से घायल हो जाने के बावजूद भी भीष्म पितामह ने अपने
प्राण नहीं त्यागे। प्राण नहीं त्यागने का मूल कारण यही था कि अगर वह इस खरमास में
प्राण त्याग करते हैं तो उनका अगला जन्म नर्क की ओर जाएगा। इसी कारण उन्होंने
अर्जुन से पुन: एक ऐसा तीर चलाने के लिए कहा जो उनके सिर पर विद्ध होकर तकिए का
काम करे। इस प्रकार से भीष्म पितामह पूरे खर मास के अन्दर अद्र्ध मृत अवस्था में
बाणों की शैया पर लेटे रहे और जब सौर माघ मास की मकर संक्रांति आई उसके बाद शुक्ल
पक्ष की एकादशी को उन्होंने अपने प्राणों का त्याग किया। इसलिए कहा गया है कि माघ
मास की देह त्याग से व्यक्ति सीधा स्वर्ग का भागी होता है।
खरमास से जुडी किंवदंती
खरमास को खरमास क्यों कहा जाता है यह भी एक पौराणिक किंवदंती है। खर गधे को कहते हैं। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार सूर्य अपने साथ घोड़ों के रथ में बैठकर ब्रह्मांड की परिक्रमा करता है। और परिक्रमा के दौरान कहीं भी सूर्य को एक क्षण भी रुकने की इजाजत नहीं है। लेकिन सूर्य के सातों घोड़े सारे साल भर दौड़ लगाते-लगाते प्यास से तड़पने लगे। उनकी इस दयनीय स्थिति से निपटने के लिए सूर्य एक तालाब के निकट अपने सातों घोड़ों को पानी पिलाने हेतु रुकने लगे। लेकिन तभी उन्हें यह प्रतिज्ञा याद आई कि घोड़े बेशक प्यासे रह जाएं लेकिन यात्रा को विराम नहीं देना है, नहीं तो सौर मंडल में अनर्थ हो जाएगा। सूर्य भगवान ने चारों ओर देखा - तत्काल ही सूर्य भगवान, पानी के कुंड के आगे खड़े दो गधों को अपने रथ पर जोत कर आगे बढ़ गए और अपने सातों घोड़े तब अपनी प्यास बुझाने के लिए खोल दिए गए। अब स्थिति ये रही कि गधे यानी खर अपनी मन्द गति से पूरे पौष मास में ब्रह्मांड की यात्रा करते रहे और सूर्य का तेज बहुत ही कमजोर होकर धरती पर प्रकट हुआ। शायद यही कारण है कि पूरे पौष मास के अन्तर्गत पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में सूर्य देवता का प्रभाव क्षीण हो जाता है और कभी-कभार ही उनकी तप्त किरणें धरती पर पड़ती हैं। (साभार : पत्रिका)