हिंदी मुहावरों मे पत्थर खाने का मतलब भले ही कुछ और होता हो, लेकिन महाराष्ट्र में वर्धा जिले के गिरड गांव में पत्थर खाने का मतलब वाकई में पत्थर खाना ही होता है। यहां लोग बड़े सलीके से, बाकायदा इन्हें किसी सुपारी की तरह तोड़कर खाते हैं। खुद खाते हैं और एक-दूसरे को पेश भी करते हैं। दरअसल, यहां सूफी संत बाबा शेख फरीद के नाम से एक धार्मिक स्थान है। यहां आने वाले श्रद्धालु सड़क किनारे लगी दुकानों से नींबू और संतरों के आकार के पत्थर खरीदते हैं और फिर इन्हें खाते भी हैं। 27 वर्षीय अमोल बबनराव तेलंग बीए तक की पढ़ाई कर चुके हैं। वो भी परंपरा के मुताबिक बचपन से पत्थर खाते रहे हैं। उनका कहना है कि पत्थर खाने में उन्हें कभी कोई परेशानी नहीं हुई। अमोल के हमउम्र शेख राशिद बताते हैं, "तीन पीढ़ियों से हमारा परिवार गिरड में बसा है। तब से ही हम भी परंपरा निभा रहे हैं। पत्थरों का स्वाद मुल्तानी मिट्टी की तरह लगता है।" जो लोग यहां आते हैं वो पत्थर तो खाते ही हैं, खरीदकर अपने साथ ले भी जाते हैं। विदर्भ से आई मीना पिपरदे और करुणा वानखेड़े ने बताया कि वो पहली बार यहां आई हैं और उन्हेोंने 10 रुपए में एक पत्थर खरीदा है। गिरड के 52 साल के आरिफ काजी शिक्षक रह चुके हैं और अब इस मजार में पिछले 13 साल से खादिम हैं। बतौर खादिम काजी खानदान की ये पांचवीं पीढ़ी है। आरिफ काजी बताते हैं कि बाबा फरीद इस इलाके में वर्ष 1200 के आसपास आए थे, हालांकि इसे लेकर मतभिन्नता है। पत्थर खाने की परंपरा का जिक्र होते ही आरिफ काजी एक छोटा पत्थर तोड़कर अपने मुंह में रख लेते हैं और अपने साथ खड़े कई लोगों को पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े बांटते हैं। सड़क किनारे दुकान पर पत्थरों का ढेर मौजूद है। आकार और गुणवत्ता के हिसाब से पत्थरों को बाकायदा अलग-अलग नाम भी दिए गए हैं, मसलन बादाम, सुपारी, खजूर, अखरोड़, गुड़ की डली, नारियल आदि। गिरड में इसी सड़क के किनारे 80 साल की राधाबाई राउत की तरह कई छोटे दुकानदार हैं जो इन्हें बेचकर दिन में दिन में 100-200 रुपए कमा लेते हैं। पत्थर खाने वालों का कहना है कि थोड़ा चबाने पर ये पत्थर टूट जाते हैं और मुंह में घुल से जाते हैं। इससे मिट्टी या चॉक जैसा स्वाद आता है। इस इलाके की जमीन में भी इस तरह के पत्थर मिल जाते हैं। जियोलॉजिकल सोसाइटी ऑफ इंडिया की भूगर्भशास्त्र प्रयोगशाला इन पत्थरों की जांच कर चुकी है। इसके पूर्व वैज्ञानिक डॉक्टर आरके चटर्जी का कहना है कि ये चूने की तरह कैल्शियम कार्बोनेट है जो क्रिस्टल रूप में है। ये एसिड में पिघलता है, पानी में नहीं। इन पत्थरों को इस तरह खाने से हाजमे और सेहत पर बुरा असर पड़ सकता है। हालांकि गिरड के प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में मौजूद डॉक्टरों का कहना है कि ऐसे मरीज नहीं आते हैं जो पत्थर खाने से बीमार पड़े हों। डॉक्टर सागर गायकवाड़ ने बताया कि कम से कम यहां तो पत्थर खाने का असर मरीजों पर नहीं दिखता। (संजय तिवारी/नागपुर से बीबीसी हिंदी डॉट कॉम के लिए)