देश में सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता के बीच चल रहे घमासान में शांति-ज्ञान-संगीत-संस्कृति
की नगरी काशी यानि “वाराणसी या बनारस” से सांप्रदायिक-सौहार्द्र की सुन्दर खबर आई
है जहां गंगा-जमुनी तहजीब को अपने संस्कारों में बसाए “विक्रम राय उर्फ दलाली बाबा”
ने हिंदू-मुस्लिम भाईचारे की अनोखी मिसाल पेश की है | उल्लेखनीय है कि वाराणसी के नारायणपुर
डाफी निवासी विक्रम राय ने अपनी जमीन पर 11 फीट ऊंचा मौला अली का
रौजा बनवाया है, जहां वह मौला अली की अकीदत उसी भाव से करते हैं जिस भाव से भगवान
श्रीराम और भगवान श्रीकृष्ण की पूजा करते हैं| विक्रम राय की इस आस्था के बारे में
पूछने पर वह कहते है कि 17 साल की उम्र में रोजगार के लिए जब वो मुंबई चले गए थे तो वहां काफी ठोकरें
खाने के बाद वह वहां दिहाड़ी पर टेलरिंग का काम करने लगे। इस दौरान खाली समय में
मंदिर ,चर्च और मजारों पर भी जाया करते थे। हाजी अली और मकद्दुम शाह के दरबार में भी
जाकर बैठते थे। एक दिन सांताक्रुज स्थित बाबा मौला अली के दरबार में गए। यहां उनके
मन को ऐसा सुकून मिला कि हर गुरुवार को जाने लगे। इसके बाद प्रतिदिन लगातार 40 दिन तक वहां गए।
धीरे-धीरे उनकी जिंदगी भी रफ्तार पकड़ने लगी। आर्थिक स्थिति अच्छी हुई तो पंजाबी
शूट का कारखाना भी डाल लिया। 25 कारीगरों को रोजगार दिया। महीने में लाखों का टर्न ओवर होने लगा। विक्रम राय
ने आगे बताया कि बाद में उनकी पत्नी लल्ली देवी, बेटा दिलीप और बेटी मंजू भी मुंबई आ गई। एक बार जब इनके गांव का परिचित उनके पास
रोजगार के लिए आया तो उन्होंने उसे अपने घर में रखा, लेकिन शर्त यह थी कि
वह शराब नहीं पीएगा। लेकिन एक रात वह शराब पीकर आया और उनके कमरे में सो गया। रात
को उसकी नींद खुली तो उसने उनके पास सफेद कपड़ों में किसी बुजुर्ग को बैठे देखा।
इसके बाद वह बेहोश हो गया। सुबह उठने पर उसने उन्हें पूरी बात बताई। इसके बाद वह कई
पंडितों और मौलवियो से मिले तो उन्होंने किसी साये की बात कही। इसके बाद उन्हें कई
बार मौला अली सपने में दिखे। उन्होंने काशी में उनका 11 फीट ऊंचा रौजा बनवाने
को कहा। बाद में 2003 में वो वापस काशी आये और यहां मौला अली का रौजा बनवाया। विक्रम राय ने बताया
कि हिंदू होते हुए जब उन्होंने मौला अली का रौजा बनवाने का फैसला किया तो रिश्तेदारों
और समाज में कुछ लोगों ने इसका पुरजोर विरोध किया लेकिन उन्होंने किसी की परवाह
नहीं की। अपने काम में वो लगे रहे | हालाँकि बाद में उनके लगन को देख धीरे-धीरे
सभी लोगों ने उनकी आस्था को स्वीकार कर लिया। आलम यह है कि अब यहां दूर-दूर से लोग
आते हैं बड़े अधिकारी, नेता से लेकर आम लोग जो यहाँ अपनी मुरादें पाते हैं। गौरतलब है कि हर गुरुवार के दिन
यहाँ काफी लोग अकीदत करने पहुंचते हैं। यहाँ के अकीदतमंद रहमान ने अनुसार, ''विक्रम राय ने पूरे
देश को संदेश दिया है कि मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।'' वहीं स्थानीय निवासी लल्लू यादव कहते हैं, ''मुंबई के मौला अली की
तरह अब यहां भी आस्थावान आने लगे हैं, जहां लोगों की मन्नतें पूरी होती हैं। यही
कारण है कि मौला अली के रौजा पर हिंदू हों या मुसलमान सभी इंसान के रूप में यहाँ
अकीदत के लिए आते हैं। निश्चय ही देश में हो रही धर्मों की राजनीति को विक्रम जी
ने करारा जवाब दिया है।'' वहीं देश में सहिष्णुता बनाम असहिष्णुता के बीच लेखकों द्वारा पुरस्कार लौटाने
के सम्बन्ध में विक्रम राय कहते हैं, ''साहित्यकार, कलाकार, पुरस्कार लौटाए या
प्राप्त करें, यह सब धर्मों के आधार पर क्यों किया जा रहा है? देश में महंगाई, भ्रष्टाचार और बेरोजगारी जैसे
मुद्दे अधिक महत्वपूर्ण हैं। बुद्धिजीवी वर्ग के लोग अगर इन मुद्दों को उठाते तो
अच्छा होता! हम सभी के लिए यही परम कर्त्तव्य है कि हम सब देश को एक धागे में पिरो
कर विकास की माला बनायें|”
इस खबर पर “शब्दनगरी” आपकी प्रतिक्रियाओं का स्वागत करता है...साथ
ही...धनतेरस-दीवाली की हार्दिक शुभकामनायें भी प्रकट करता है.....