
घना अँधेरा छा गया,बुझ गए दीप चिराग.
हैं चिंगारी राख में दबी हुई है आग।
पिघल गई सब ज़िन्दगी,धूप-छांव के संग,
अपनी ढपली,तुड्तुडी,अपन-अपना राग ।
मल-मल धोये जिस्म को,पाँव पाखरे खूब,
ना तो बदले आईने,धुले ना मन के दाग।
कोयल, कौआ , केंचुली उतरे हुए भुजंग,
कबहूँ ना बैठत घर बने ,तकत बिराने बाग़ ।
रूप जगाये मन जले ,धूप चुरावत रंग,
चुप-चुप बैठे अनमने ,ना पूरी हो मांग ।
ममता,मूल मतंग मन,अतुलित शक्ति अपार,
मगन करम हित हैं बंधे ,छुटत तो देखो स्वांग।
बिना बुलाये ही आयेंगे ,बरखा, शरद , बसंत,
जितना चाहे सोखिये , परि- पूरण 'अनुराग'।