उफ़!ये तन्हाइयाँ ज़िन्दगी की,
इम्तहां बन गईं आदमी की।
रात बंजर है दिन सूखे-सूखे,
सिर्फ चर्चा है यारों नमीं की।
वक़्त पिघला हुआ आइना है,
दास्ताँ कह रहा है सभी की।
अपनी परछाइयों का मुक़द्दर,
प्यास है इक क़्वारी नदी की ।
मुख़्तसर सी मेरी इब्तदा है,
उम्रें छोटी,बड़ी दोस्ती की।
ख़त्म हो जाएगा धीरे-धीरे,
ये हवा और वो ताज़गी भी।
बात'अनुराग'की मत करो तुम,
वेदना हूँ प्यासी ज़मी की।
अवधेश प्रताप सिंह भदौरिया'अनुराग' DT.-10/03/2016