मेरी चाहतों का धरम पूछते हैं ,
बताते नहीं हैं कि कितना मेरे हैं ।
बड़ी कश्मकश से गुजरते है लम्हें ,
निगाहों पर अनचाहे परदे पड़े हैं ।
लड़ेंगे रात-दिन अपने खिलाफ,
वो सकूँ के चार पल मँहगे पड़े है।
अलग अंदाज़ था लेकिन क़यामत,
ज़ख़म उम्मीद को गहरे मिले हैं।
पहन कर आ गए शाही लिबास ,
गरीबों के तन-बदन नंगे पड़े हैं ।
बेबजह पगड़ी हमारी मत उछलो,
ख़ुशी की राह पर में कांटे गड़े हैं।
महज़ अल्फाज हैं या ममायने भी,
जुबां के तीर से घायल खड़े हैं ।