हैं आज भी हालात की पगडंडियां,
जो रास्तों की बन गयीं नाकामियां।
थी सामने मंज़िल क़दम का फासला,
फिर आ गई दीवार कोई दरमिया।
कोशिशें करता रहा मैं बार - बार,
लल्ले गयी आंधी उड़ाती कारवां।
क्यों गुम रही पहचान उड़ती धुन्ध में,
हैं हर घडी रिश्तों में बढ़ती तल्ख़ियाँ।
कांच के मन थे चटख कर रह गए हैं,
बस मोतियों के बोझ ढोती सीपियाँ।
खामोश मत बैठो दमन का दौर है,
अब राख में छुपने लगीं चिनगारियाँ।
कम वक़्त है टेढ़ी सलाखें गर्म पिघली,
कहीं जान ना लेलें तुम्हारी रोटियां।