पीते हैं लोग ज़हर,दवाओं के नाम पर,
है दौरे तरक्की आज का इस मुकाम पर।
बाक़ी जो बचा ज़िन्दगी के नाम कर चले,
निकलेंगे हैं आज फिर ये परिंदे उडान पर।
साफ़ करके आईना जरा खुद को निहारिये
फिर रखना कसौटी पे,हमें इम्तहान पर ।
हर दिल में इन्कलाब का अरमान छुपा है ,
मत छेडिएगा आप उनके स्वाभिमान पर।
हरगिज़ नहीं मंजूर तेरा फैसला निज़ाम,
बिक चुका हूँ दोस्त,महज दिल के दाम पर।
कमबख्त वक्त कब-कहाँ अपना मुरीद था,
चर्चा बिठा रहे हैं लोग फिर से संविधान पर|
बागी निकल पड़े ,ना सुर ना ताल शोर-गुल,
हर चीज़ बिक रही है , घर-घर दूकान पर।