रात-रात भर सपने देखे,आँख खुली तो सूनापन,
काम बटोरे ,ज़मीं कुरेदी नहीं भर सका खालीपन।
चप्पा-चप्पा,कूल-किनारे टूटी छत थी झुकी दिवारें,
धूप गुनगुनी,छाँव समेटे दूर छिटकता अपनापन।
धीरे-धीरे दरक रही हैं रिश्तों की बुनियादें भी,
मर्यादाएं टूट चुकी सब और पिघलता बहशीपन।
ख़ामोशी में शोर सुलगता और भीड़ में सन्नाटा,
दिशाहीन हो गया आदमीं असमंजस में रहतामन
शब्दों ने संवाद खो दिए भेद-भाव ने सहषुणता,
भावहीन हो गई भावना स्वाद हीनता फीकापन।
लहरों की चंचलता में जब सागर मदमस्त हुआ।
तूफानो ने बदल दिया पथ,रूठ गई बरखा,सावन।
अंतहीन हो गई वेदना , खंडित मन-संकल्प हुआ,
उठ 'अनुराग'हृदय मंथन को तत्पर होता मेरा जीवन।