!!*******ग़ज़ल*******!!
वो हौंसलों को ऊँची उडान दे गया,
जो बेजुबान को भी जुबान दे गया।
हीरे भी यहां कांच के पत्थर बने रहे,
तू जौहरी मिला तो पहचान दे गया।
मुझे आइना समझ के देखता रहा,
गुमनाम ज़िन्दगी को एक नाम दे गया।
सबकी निगाहों में अजनबी बना दिया,
ये दिल्लगी थी लेकिन इल्ज़ाम दे गया।
रोटी कमा रहा है ईमान बेचकर,
ये दौर आदमीं को ईनाम दे गया।
मिला है दर्द लेकिन है दिल से शुक्रिया,
शायर को चाहिए वही सामान दे गया।
'अनुराग'ज़मीं को बिछा के सो लिया करो,
वो ओढने को पूरा आसमान दे गया।
अवधेश प्राप सिंह भदौरिया'अनुराग' Dt -16032016 CRALLC 00L