निश्छल,अटल,संकल्प की परिकल्पना,
जब-जब हुई सहनी पड़ी आलोचना।
पकड़ी अलग राह तो बागी कह दिया ,
देखना कल ये बुनेंगे इक नयी संभावना।
जिन दरख्तों को लचकना आ गया है,
फूल-फल देंगे बनेगे भूख की संवेदना।
करके तजुर्बा देख -सुन अपने ख़िलाफ़,
जम गई है आइनों पे धूल कितनी देखना।
है अगर चर्चा तेरा,आखिर कोई तो बात है,
मत कभी बनना गुम-नामियों की योजना।
वो हवा में घोलता है ज़िंदगी का फ़लसफ़ा,
आपकी मर्जी रखोगे याद याकी भूलना।
बोल दे सच को छुपाना पायेगा , मुमकिन,
वक़्त की अपनी अदा मेरी,तुम्हारी कल्पना।