बस्ती के जंगल से जब तू गुजरेगा,
संभल-संभल के चलना कोई चुग लेगा।
पानी की हलचल को,पर्वत क्या रोकेगा,
तोड़ - फोड़ के चट्टानें ,बह निकलेगा।
टूट गया संवाद ,वेदना पिघल रही है ,
अंतस में पड गईं दरारें,अब ना संभलेगा ।
ख़ामोशी ले गई चुरा कर सपनो को,
टुकड़ा-टुकड़ा बिखर गया मन दर्पण का ।
उतर रहा फिर चाँद कहीं घर-आँगन में ,
रोको ना मावस का मौसम गुजरेगा ।
आहिस्ता , हौले से रखना पाँव जरा ,
आहट सुन ,सोया ब्याकुल मन जागेगा ।
भरो अंजुली करो आचमन मिल जुल के,
बहुत हुआ'अनुराग' नहीं मन बहकेगा ।
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